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________________ श्रावकधर्म-प्रकाश ] [ २०१ जीवके लोभका पोषण है। धर्मी जीव दान देवे उसमें तो उसे गुणोंके प्रति प्रमोद है और राग घटानेकी भावना है। पहले मूर्खतावश कुदेव- कुगुरु पर जितना प्रेम था उसकी अपेक्षा अधिक प्रेम यदि मच्चे देव - गुरुके प्रति न आवे तो उसने सच्चे देषगुरुको वास्तव में पहिचाना ही नहीं, माना नहीं, वह देव-गुरुका भक्त नहीं; उसे तो सत्तास्वरूपमें कुलटा- स्त्री समान कहा है । देखिये, इस जैनधर्मका चरणानुयोग भी कितना अलौकिक है ! जैन श्रावकके आचरण किस प्रकार होवें उसकी यह बात है। रागकी मन्दताके आचरण बिना जैन श्रावकपना नहीं बनता। एक रागके अंशका कर्तृत्व भी जिसकी दृष्टिमें रहा नहीं ऐसे आचरण में राग कितना मंद पड़ जाता है ! पहले जैसे ही राग-द्वेष किया करे तो समझना कि इसकी होटमें कोई अपूर्वता नहीं आई, इसकी रुचि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । रुचि और दृष्टि बदलते ही सारी परिणतिमें अपूर्वता आ जाती है, परिणामकी उथलपुथल हो जाती है । इसप्रकार द्रव्यानुयोगके अध्यात्मका और चरणानुयोग के परिणामका मेल होता है । दृष्टि सुधरे और परिणाम चाहे जैसे हुआ करें ऐसा नहीं बनता । देव गुरुके प्रति भक्ति, दान वगैरह परिणामकी मन्दताका जिसको ठिकाना नहीं है उसे तो दृष्टि सुधारनेका प्रसंग नहीं । जिज्ञासुकी भूमिकामें भी संसारको तरफके परिणार्मोकी अत्यंत ही मन्दना हा जाती है और धर्मका उत्साह बढ़ जाता है । दानादिके शुभपरिणाम मोक्षके कारण हैं- ऐसा चरणानुयोगमें उपचारसे कहा जाता है, परन्तु उसमें स्वसन्मुखता द्वारा जितने अंश गगका अभाव होता है उतने अंश मोक्षका कारण जानकर दानको उपचारसे मोक्षका कारण कहा इसप्रकार परम्परासे वह मक्षिका कारण होगा, परन्तु किसे ? जो शुभराग में धर्म मानकर नहीं अटके उसे । परन्तु शुभगगको ही जो खरेखर मोक्षका कारण मानकर अटक जावेगा उसके लिये तो वह उपचार से भी मोक्षमार्ग नहीं । वीतरागी शास्त्रोंका कोई भी उपदेश राग घटाने हेतु ही होता है, रागके पोषण हेतु नहीं होता । अद्दो, जिसे अपनी आत्माका संसारसे उद्धार करना है उसे संसारले उद्धार करनेका मार्ग बताने वाले देव-गुरु- धर्मके प्रति परम उल्लास आता है । जो भवसे पार हो गये उनके प्रति उल्लाससे राग घटाकर स्वयं भी भवसे पार होनेके मार्गमें आगे बढ़ता है। जो जीव संसारसे पार होनेका इच्छुक होवे उसे कुदेव, कगुरु, कुशास्त्रके प्रति प्रेम आता ही नहीं, क्योंकि उनके प्रति प्रेम तो संसारका ही फारण है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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