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________________ भावकधर्म-प्रकाश प्रथम तो ऐसे मनुष्यपनेको पाकर मुनि होकर मोक्षका साक्षात् उचम करना चाहिये । उतनी शक्ति न होवे तो गृहस्थपने में रहकर दान तो जरर करना चाहिये । इतना भी जो नहीं करते और संसारके मात्र पापमें ही लगे रहते हैं ये तो तीव मोह. के कारण संसारकी दुर्गतिमें कष्ट उठाते हैं। इससे बचने के लिये दान उत्तम जहाजके समान है। दानमें देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगकी मुख्यता है, जिससे उसमें धर्म. का संस्कार बना रहे और राग घटता जावे । तथा आगे जाकर मुनिपना होकर वह मोक्षमार्गको साध सके। श्रावकके अन्तःकरणमें मुनिदशाकी प्रीति है इसलिये हमेशा त्यागकी ओर लक्ष रहा करता है; मुनिराजको देखते ही भक्तिसे उसको रोम रोम पुलकित हो जाते हैं। मुनिपनाकी भावनाकी बातें करे और अभी राग थोड़ा भी घटानेका ठिकाना न हो, लोभादि असीम हो ऐसे जीवको धर्मका सबा प्रेम नहीं। धर्मों जीव मुनि अथवा अर्जिका न हो सके तो भले ही गृहवासमें रहता हो, परन्तु गृहवासमें रहते हुये भी इसकी मात्मामें कितनी उदासीनता है ! अरे, यह मनुष्य अवतार मिला है, जैनधर्मका और सत्संगका ऐसा उत्तम योग मिला है तो आत्माको साधकर मोक्षमार्ग द्वारा उसको सफल कर। जो संसारके मोहमें ही जीवन बिताता है उसके बदले आन्तरिक प्रयत्न द्वारा मात्मामें से माल बाहर निकाल, मात्माका वैभव प्रगट कर ! बैतन्यनिधानके सामने जगतके अन्य सभी निधान तुच्छ हैं। अहा, संतोंने इस चैतनिधानको स्पष्ट रूपसे दिखा दिया; उसे साधकर, परिग्रह छोड़कर इस चैतन्य खजानेको न लेवे ऐसा मूर्ख कौन है? चैतन्यनिधानको देखनेके पश्चात् बाहरके मोहमें लगा रहे ऐसा मूर्य कौन है? करोड़ों रुपया देने पर भी जिस भायुज्यका एक समय भी बढ़ नहीं सकता ऐसे इस किंमती मनुष्य जोवनको जो व्यर्थ गमाते हैं और जन्म-मरणके मंतका उपाय नहीं करते वे दुर्बुद्धि हैं। भाई, इस आत्माको साधनेका अवसर है। तेरे बजानेमेसे जितना बैभव निकले उतना निकाले ऐसी बात है,। अरे, इस अवसरको कौन बोधे? मानन्दका भंडार खुले तो आनन्दको कौन न केवे ? बड़े बड़े पकवतियोंने मौर मस्यायु राजकुमारोंने इस चैतन्य-खजानेको लेने हेतु बाहरके बजानेको छोड़छोड़कर बनमें गमन किया और अंतरमें ध्यान करके सर्वपदके भचिन्त्य खजाने को बोला, उन्होंने जीवन सफल किया। इसप्रकार धर्मात्मा तो मात्माका मानन्द-बजाना कैसे बड़े उसीमें ही उचमी है। जो दुर्बुद्धि जीव ऐसा उद्यम नहीं करता, तृष्णाकी तीव्रतासे परिप्रह ही इकट्ठा किया करता है उसका तो जीवन व्यर्थ है। दानके बिना पहस्थ तो मोरकी जालमें
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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