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________________ कता-कर्म आधका. दोहा-पुदगल परिणामी परब, सबा परणये सोय । या पुद्गल कर्म को, पुदगल पा होय ॥१६॥ उपजाति स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां न करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव नरेत्मकर्ता ॥२०॥ चेतन द्रव्य की सहज, प्रवाहरूप और एक समय भी उससे अलग न होने वाली जो परिणमन करने की मामथ्र्य है वह अनादि काल में ऐसी ही है। ऐसी परिणमन शक्ति के होने में जीव अपने आप गे मंबंधित शद्ध चेतनारूप नथा अशुद्ध चेतनारूप भावों को करता है। उन परिणामों का निश्चय में जीव हो करनेवाला होता है। भावार्थ-जीवद्रव्य की अनादि निधन परिणमन शक्ति है ॥२०॥ दोसा -जीव चेतना मंजुगत, मदा काल मब ठौर । तातं चेतन भाव को, करता जीव न पोर ॥२०॥ प्रार्या ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरन्यः । प्रज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ॥२१॥ कोई ऐसा प्रश्न करता है कि सम्यग्दृष्टि जीव के मंदविज्ञान स्वरूप परिणाम होने का तथा अज्ञानरूप न होने का क्या कारण है ? भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय का भागता हुआ विचित्र रागादिरूप परिणमन करता है तो भी वह ज्ञानभाव का ही कर्ता है और उसके ज्ञानभाव है, अज्ञानभाव नहीं । सो कम है- मा किसी ने पूछा। मिथ्यादृष्टि के परिणाम, उसका समस्त परिणमन, अशुद्ध चेतनारूप होने मे बन्ध का कारण होता है । कोई प्रश्न करता है कि ऐमा कमे है ? तो कहते हैं कि क्योंकि वे समस्त परिणाम जान की जाति के नहीं होते। भावार्थमिथ्यादृष्टि के जो कुछ परिणाम है सो सभी बन्ध के कारण हैं ॥२१॥ डिल्ल-मानवन्त को भोग निर्जरा हेतु है। मसानो को भोग बन्ध फल देतु है ।।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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