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________________ समयसार कलश टोका दोहा-ज्ञान स्वरूपो प्रात्मा, करे ज्ञान नहि शौर । aruni चेतन करे, यह व्यवहारी दौर ॥ १७ ॥ वसंततिलका जीवः करोति यवि पुद्गलकर्म नव कस्तहि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव । एतह तीव्ररयमोहनिवर्हरणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ ॥ १८ ॥ इस समय जिसका दुनिवार उदय है ऐसे विपरीत ज्ञान का मूलतः निवारण करने के हेतु द्रव्यपि आठ कर्म का कर्ता जो है, उसका कथन करते है। क्योंकि निश्चय कथन में ऐसी शंका की गई है कि चंतन, द्रव्यपिंडरूप आठ कर्मो को नहीं करना है तो कौन करता है ? भावार्थ - ऐसा जाति उपजा है कि जीव के करने में ज्ञानावरणादि कर्म होते है। उसका उत्तर यह है कि पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी है इसलिए वह स्वयं ही महज भाव से वर्मख्य परिणमन करता है || १८ || सर्वया --- पुद्गल कर्म करे नत्र जांय, की तुम में समझी नहि तंमी । कौन करे यह रूप कहो प्रव. को करता करनी कह कमी II प्राप ही प्राप मि बिल रे जड़, क्यों करि मो मन मंशय ऐमी, शिष्य सन्देह निरण बात कहें गुरु है क जैसी ॥ १८ ॥ उपजाति स्थितेत्यविघ्ना पलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां न करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ १६ ॥ इस प्रकार निश्चय में मूर्तिक अर्थात् पुद्गल द्रव्य का स्वभाव परिणमनशील है जो अनादि निधन है, महज है और निविघ्न है। इसी परिणमन शक्ति के होने से पुद्गल द्रव्य अपने अचेतनद्रव्यसंबंधी परिणामों को करता है । और पुद्गलद्रव्य ही उन परिणामों का कर्ता है। भावार्थ -- जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गल द्रव्य परिणमन करता है। उन भावों का कर्ता पुद्गलद्रव्य ही होता है ॥ १६ ॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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