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________________ कर्ता-कर्म अधिकार अनुष्टुप श्रात्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः ग्रात्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ ११॥ जीव द्रव्य निज शुद्ध चेतनारूप अथवा अशुद्ध चेतनारूप जो राग-द्वेषमोहभाव हैं. उन्हीं रूप परिणमन करता है। पुद्गल द्रव्य अपने त्रिकालगोचर ज्ञानावरणादि रूप पर्याय को करता है । निश्चय ही जीव का परिणाम ब आत्मा एक जोव ही है । ५५ भावार्थ -- जिन चेतना परिणामों को जीव करता है वे वेतन परिणाम भी जीव ही है. इसमें कोई द्रव्यांतर नहीं हुआ। पुद्गल द्रव्य के परिणाम पुद्गल द्रव्य है वे जीव द्रव्य नहीं हो जाते। भावार्थ -जिन ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता पुद्गल है वे कर्म भी पुद्गल हो हैं कोई द्रव्यांतर नहीं हैं ॥। ११ ॥ सर्वया शुद्धभाव चेतन प्रशुद्धभाव चेतन, दुहूं को करतार जीव और नहि मानिए । hifts को विलास वर्ग रस गन्ध फास, करता दुहंको पुद्गल परवानिए | ताते वररणादि गुण ज्ञानावररणादि कर्म, नाना परकार पुद्गलरूप जानिए | समल विमल परिणाम जे जे चेतन के, ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिए ॥११॥ वसंततिलका प्रजानतस्तु स तृरणभ्यवहार कारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः । पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृध्या गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ॥१२॥ जिस प्रकार हाथी अन्न और घास दोनों के मिले जुने आहार को बराबर मान कर खाता है और घास का और अनाज का विवेक नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव कर्म के संयोग मे हुई अपनी विचित्र दशाओं में ही रंजायमान होता रहता है। वह कर्म को सामग्री को अपनी मानता है
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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