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________________ ५६ समयसार कलश टाका और जीव का ओर कर्म का विवेक नहीं करता । निश्चय दृष्टि से, स्वरूपमात्र की अपेक्षा से तो जीव ज्ञान स्वरूप है । परन्तु इसकी वर्तमान दशा ऐसी हो रही है कि जैसी दशा उस व्यक्ति को होती है जो शिखरिणी (दही में मीठा मिला हुआ) के मोटं खट्टे स्वाद में ऐसा लोलुप है और मानता है कि मैं गाय का दूध पी रहा हूँ । भावार्थ- स्वाद का विषयी होकर शिखरिणी पीता है परन्तु स्वाद भेद नहीं करना । उसमें ऐसा निर्भेदपना मानता है जैसा कि गाय का दूध पीते समय निर्भेदपना मानना चाहिए ।। १२ । सर्वया जैसे गजराज नाज घास के गराम करि, भक्षण स्वभाव नहि भिन्न रम नियो है । जैसे मतवारी न जाने सिम्बर्गरण स्वाद, युग मैं मगन कहे गऊ दूध पियो है ॥ नमे मिथ्यामति जीव ज्ञानरूपी है सदीत्र, यो पाप पुण्यमों महज सुन्न हियो है । चेतन प्रचेतन दृहूं को मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानेन विवेक कछु कियो है ||१२|| शार्दूलविक्रीडित प्रज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मगा । श्रज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ॥ प्रज्ञानाञ्च विकल्पचक्रकररणाद्वानोत्तरङ्गान्धिव ज्ञानमया श्रपि स्वयमसी कर्त्रीभवन्त्यालाः ॥ १३ ॥ यद्यपि जीव सहज ही शुद्ध स्वरूप है परन्तु जैसे हवा के संयोग से समुद्र हिलता और उछलता है, वम सारं समारी मिध्यादृष्टि जांव मिथ्यादृष्टि की बरजोरी न अनेक रागादि के समूह के कर्त्ता बने हुए आकुलित हो रहे हैं । भावार्थ जैसे समुद्र का स्वभाव निश्चल है परन्तु वायु के वेग से प्रेरित होकर उछलता है और उछलने का कत्ता भी होता है। बम ही जीव द्वं व्यस्वरूप में अकता है परन्तु कर्म के संयोग मे विभावरूप परिणमन करता है तथा विभावपने का कर्ता भी होता है। लेकिन वह ऐसा, अज्ञान के वश से करता है, स्वभाव से नहीं । दृष्टान्तः जैसे—मृग मिथ्याबुद्धि के कारण -
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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