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________________ ૪ समयसार कलश टोका जीव पुद्गम एक खेत चाहि दोउ, अपने अपने रूप कोऊ न टरत है । जड़ परिणामनिको करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन स्वभाव प्राचरत है ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित प्रासंसारत एक धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकदुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः । तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं ब्रजेत् तत्कि ज्ञानघनम्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥ १० ॥ अहो जीव | मिध्यादृष्टि जीवी के निवरणादि कर्म का कर्त्ता जीव है ऐसा परद्रव्यस्वरूप अनि ही हीट, मिथ्या वरूप अन्धकार अनादि में एक संतानरूप चला आ रहा है. जिसके वा व.. मै देव में मय में नियंत्र, मैं नारकी इत्यादि कर्म पर्यायों में आत्मबुद्धि करता है और अपने स्वरूप को वैसा हो मानता है। ऐसा जो अनादिकाल का मिध्यान्त्र अन्धकार है वह अन्तमंहनं मात्र में शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने में विनय जाता है । 'भावार्थ --- जीव के यद्यपि मिथ्यात्व अन्धकार अनन्तकाल का चला हो आ रहा है तथापि सम्यक्त्व होने पर वह मिथ्यात्व छूट जाता है । हे जीव, एक बार जो मिथ्यत्त्व छूट जाए तो फिर जीव की परद्रव्य में एकत्र बुद्धि कहा होगी ? अर्थात् नहीं होगी। वह तो ज्ञान का समूह है। भावार्थ - शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने पर संसार में हलना नहीं होना ||१०|| सबंया महाधीठ दख को बसोठ परद्रव्यरूप, erapy का निवार्यो नह गयो है । ऐसो मियाभाव सग्यो जोब के बना हो को, पाहि महंबुद्धि लिए नानाभांति गयो ? ।। काहू समं काहू को मिध्यात अंधकार मेदि, ममता उच्छेदि शुद्धभाव परिरहयो है । तिनही विवेकधारि बंध को विलाम डारि प्रातम सति स जगत बोति लयो है ॥१०॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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