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________________ शुद्धात्मद्रव्य अधकार वसंततिलका यः पूर्व भावकृतव विषमार भुङ्क्तेफलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । प्रापातकाल रमरणीयमुदकंरम्यं २०३ निःकम्मंशमंमयमेति दशान्तरं सः ॥ ३६ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यास्य भाव के द्वारा उपार्जित ज्ञानावरणादि पुद्गल पिडचेनन्य-प्राणघातक विच वृक्ष के फम अर्थात् संसार सबंधी सुखदुख को नहीं भांगना है । भावार्थ - मुखदुख का जायब. मात्र है परन्तु उनको परद्रव्य रूप जान कर उनमें रंजायमान नही होना । मध्यग्दृष्टि जीव जय स्वरूप का अनुभव होने मे होने वाले अनीन्द्रिय सुख में तृप्त है। वह निःकर्म अवस्था रूप उम निर्वाण पद को प्राप्त करना है जो अनन्त सुख विराजमान है, आगामी अनन काल तक मुख रूप है व मकल कर्म का विनाश होने में प्रगट होने वाले द्रव्य के महज भूत अतीन्द्रिय अनन्त सुखमय है अर्थात् उससे एक सत्ता रूप है ॥ ३६ ॥ दोहा - जो प्रवकृत कर्मफल, चिसों भुंजे मोहि । मगन रहे घाठों पहर, शुद्धात पर मांहि ॥ मो बुधकबंदशा रहित, पावे मोक्ष तुरंग । भजे परम समाधि मुल, ग्रागम काल प्रगत ॥३९॥ स्रग्धरा प्रत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाम्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतमायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमित: सर्वकालं पिवन्तु ॥ ४० ॥ आवरण सहित जो केवलज्ञान था उसकी निरावरण करके जो जीव स्वयं अपनी शुद्ध ज्ञानमात्र परिणति को आनन्द सहित नयाता अतीन्द्रिय सुख सहित ज्ञान बेतनारूप परिणमन करता है वह आगामी अनन्तकाल पर्यन्त अतीन्द्रिय सुख का स्वाद लेता है। उसने सर्व मोह-राग-द्वेष इत्यादि अशुद्ध परिणति का भने प्रकार विनाश किया है और यह सर्वथा सर्वकाल निश्चय
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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