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________________ २०४ ममयमार कलशटीका करक कि जानवरणादि कम और कमों के फलम्बम्प प्राप्त मखदुख शन बमा म अत्यन्न भिन्न है उना स्वामित्वपन केन्याग का भाकर उस म्व-म्वभाव को प्राप्त किया है, जो चनना ग्म का निधान है। भावार्थ- मोह-गग-द्वप विनगना है और गदशान चनना प्रगट होती है । अतीन्द्रिय मुमार जीत परिणमन करता है। इनना जो कार्य होता है वर. मब एक ही माय होता है ||४|| पापं जो पूग्य कृत कर्म, विव विषफल नरि भंगे। गोग जुनि कारिज करत, ममता न प्रजे॥ गग विशेष निगेधि, मंग विकला मारे। शुखानम प्रभो प्रभ्याम, शिव नाटक मरे॥ जो सामवन र मग चलन, पूरण केवल लो। मो परम प्रनोन्द्रिय मृत्व विवं, मगन हा मंतत गेहे ॥४०॥ उपजाति इतः पदाप्रप्रपनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् मस्तवस्तुव्यतिरेकनिधयाद्विवेचितं जानमिहावतिष्ठते ॥४१॥ अजान चेतना का विनाश होने के उपगन्न उम जीव वस्तु का आगामी मयंकाल गद ज्ञान मात्र प्रवनंन है जो अपने में विद्यमान शक्ति के कारण मयंकाल ममग्न पगद्रव्य मे भिन्न है. ममग्न भेद विकल्प में गहन है. अनाकुलत्य लक्षण वाले अतीन्द्रिय मुख में यक्त है और मयंकाल प्रभागमान है। पन वर्ण. पच रम. दो गध, अष्ट म्पणं, शरीर, मन, वचन मुखदम, इत्यादि जितने भी विषय है उनको माला की नग्ह गृपने पर उम मब माला मे जोव वस्तु भिन्न है। वह विषयों को माला पुद्गल द्रव्यों को पर्यायरुप है ॥४१॥ मया - निरमं निराकुल निगम र निरमेर, जाके परकाशमें बगत माया है। प रस गंध कास पुदगल को बिलास, तासों उपवासबाको बस गायत॥ विबहलो विरत परिवहसों म्यारो सदा, बा जोग विपहको चिन्ह पाहतु है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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