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________________ ममयसार कला टीका में अपने नवम्बम्प का, शान बम्प मात्र आम्मा का-जो अपने बाप में कभी ग्वलित नहीं होता, आम्वादन करता हूं। इम शुद्ध म्वरूप के अनुभव के फनम्बर मानावग्णादि पुद्गल पिड कप विष का वृक्ष जो किनन्य प्राण का घातक है. उनके फल अर्थात उदय की मामग्री का मेरे भांग बिना ही मन में मनामर्माहत नाग हो। भावार्थ .. कम के उदय में प्राप्त मुम्ब अथवा दुःख का नाम कर्म फल चनना है उसमें आत्मा भिन्न स्वरूप है गेमा जान कर मम्यग्दष्टि जीव अनुभव करना है॥३७॥ मया-मम्पकान को अपने गुण. मैं नित मग विरोषसों तो। मैंकरतिक निरवंडक. मोह विर्य रम लागन तोतो।। गड म्यानको प्रभो शरि, मैं जग मोर. महा भट जोनो। मोन ममोप भयो अब मोक काल अनन्त रहो विधि होतो ॥३७॥ वसंततिलका निःशेषकर्मफलसंन्यसनाममवं मक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः चंतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्वं कालावलीर मचलस्य बहत्वनन्ता ॥३८॥ मुम कर्म चेतना तथा कर्म फल चेतना मे हित शुद्ध शान चेतना में स्थिताप अनन्त काल मे हो पूरा हो। भावार्थ ---क.मंचेतना तथा कर्मफलचेतना तो हेय है और ज्ञानचेतना उपादेय है। समत जानावरणादि कमों के फलस्वरूप प्राप्त संसार के मुखदुख के स्वामित्वपने के त्याग के कारण अन्य कर्मों के उदय से हुई अशुद्ध परिणति में जो जीव विभावरूप परिणमन कर रहा था उससे रहित होकर अनन्न जान चेतनामात्र प्रवृत्ति हुई है जिसको ऐसे मुझे वह शुद्ध चतन्य वस्तु निरन्तर अनुभव में आती है जो शुद्ध ज्ञान स्वरूप है तथा आगामी अनंतकाल नक अपने स्वरूप से अमिट है ॥३८॥ रोहा-कहे विधमरण में रहं, सदा मान रस राचि । शुगतम अनुभूतिसों, ललित न होहं कदाचि॥ पूर्वकरम विष तरु भए, उद भोग फल फूल। में इनको नहिं भोगता, सहब होहं निर्मूल ॥३॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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