SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१९) वह तो कह रहा है कि मैं तो मात्र प्रकाश रूप हूँ। इसी प्रकार जानो को भी सातापने को स्वाभाविक स्थिति बनती है, वह सबको जानता रहता है। वह बार-बार मातापने से हटना है, मन से जुड़ जाता है, विचार चालू हो जाते हैं फिर स्वयं को टोकता है. सावधान हो जाता है और श्वास के साक्षी रहने का और शरीर को सागे क्रियाओं का चलते-फिरते, उठते-बैठते साक्षी रहने का ही प्रयास करना है. माक्षीभूत रहते-रहने अनुभूति तो कभी स्वय. मेव ही हो जाती है। अनुभूति व ज्ञानापने में अन्तर यही है कि अनुभूति में तो मात्र एक अकेला चैतन्य हो रह जाता है, मन, श्वास, शारीरिक क्रिया आदि किसी पर भी दृष्टि नहीं रहती पर ज्ञातापने में भीतर में जानने वाला और बाहर में श्वास या कोई शारीरिक क्रिया या बोलने की क्रिया-ऐसे दो रहते हैं. मन नहीं रहता। जहाँ ज्ञानापना होगा वहाँ मन तो रह हो नहीं सकता क्योंकि शक्ति तो वही है, यदि वह मन में लग जाएगी तो जाता में कहाँ मे लगेगी, हाँ शरीर की कोई क्रिया या श्वास को क्रिया जाननपने के साथ भी बनी रह सकती है क्योंकि इन क्रियाओं में चेतना की बढ़त थोड़ी सी शक्ति लगती है पर मन के विकल्पों में तो अत्यधिक शक्ति खर्च होती है। नानी नाम काही कर्ता-शानी के भी ज्ञान धारा व कर्मधारा दोनों चल रही हैं पर वह ज्ञानधारा का ही मालिक है। कर्मधारा का कार्य हो रहा है पर ज्ञानी उसका जानने वाला ही है, कत्ता नहीं हैं, कर्मधारा में उसके अहंपना नहीं हैं। जैसे हम दूसरे आदमी को देखते, जानते हैं, उसके क्रोधादिक को भी देखने हैं और शरीर की अवस्था को भी देखते हैं परन्तु उस रूप नहीं होते मे ही यह भी दूर खड़ा होकर कर्मधारा को देखता है पर उसे अपने रूप नहीं करता अनः अब ज्ञान अपना ही कर्ता भोक्ता है कर्म के कार्य का कर्ता भोक्ता नहीं। सोने में यदि चांदी मिली हो तो भी वह शुद्ध स्वर्ण की दष्टि से तो खोट ही कहलाएगी, उसे ऐसा नहीं कहेंगे कि यह चांदी की है तो कुछ अच्छी है। मोक्षमार्ग में भी मात्र शुद्ध स्वर्ण को, शुद्ध बात्मा को ग्रहण करने की दृष्टि है अतः समस्त कर्म ही संसार को बढ़ाता है चाहे वह कितनी ही ऊँची से ऊंची जाति का हो, तीर्थकर प्रकृति ही क्यों न न हो। 'जितना ज्ञान रूप रहना उतना मोक्ष, जितना कम उतना संसार' यह वस्तु तत्व ज्ञानी के अच्छी तरह समझ में आ गया अतः अभी तक जो शक्ति कर्म के करने में लगती थी वही अब शान में, उसे जानने में लगने लगी अतः मानी शान का कर्ता हो गया और उसी का भोक्ता कहलाया, कर्मव उसके फल का कर्ता व भोगना न रहा।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy