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________________ (२०) म्य दृष्टि, पर्याय दृष्टि-जब तक यह अज्ञानी था तब तक अपने आपको मात्र पर्याय प ही देखता जानता था, पर्याय दष्टि का ही इसे एकान्त था, द्रव्य स्वभाव का इमे जान ही न था और आत्मा है द्रव्य-पर्याय रूप अत: वस्तू का मम्यक परिज्ञान न होने के कारण यह मिथ्यादष्टि कहलाता था। चेतन द्रव्य दृष्टि से त्रिकाल शुद्ध और एक अकेला है पर पर्याय दृष्टि से देख तो अशद्ध हो रहा है और शरीर, कर्म आदि अनेक संयोगों को प्राप्त हो रहा है अतः जीव को दोनों दृष्टियों का ज्ञान होना चाहिए और वस्तु का पर्याय रूप तो ये अनुभव अनादि काल से कर ही रहा है, वस्तु का द्रव्य कप भो अनुभव इसे होना चाहिए। अब आचार्यों के सम्यक उपदेग मे जब द्रव्य स्वभाव का ज्ञान कर द्रव्य रूप इसने वस्तु का अनुभव किया नो इसका ज्ञान यथार्थ हुआ और ये ज्ञानी कहलाया और पर्याय में एकत्व बद्धि छुट गई। ग्य दष्टि के बल से भय, इच्छाब कषाय के प्रयोजन का प्रभाब-अजान दशा में वस्तु को मात्र पर्याय रूप ही देखने से आकुलता के सिवाय और कुछ इसके हाथ न लगता था क्योंकि सप्त भयों से यह निरन्तर घिरा रहता था-मरण का डर, पुण्य के उदय में पाप का उदय आने का हर, मख में दुःखी हो जाने का डर, सम्मानित है तो अपमान का डर आदि और इच्छा व कपाय करने का प्रयोजन भी इसके बना हुआ था। सारी स्थिति सब तरह से अनुकल बनी रहे इस बात की इच्छा एवं इच्छा को प्रति न होने पर क्रोधादि कषाय रूप परिणमन हो हो जाना था। अब ज्ञानी होने के बाद जब इसकी द्रव्य दृष्टि जाग्रत हई, इसने अपने आपको ज्ञान रूप जाना, निज भाव रूप देखा तो पाया कि मैं तो एक अकेला चतन्य है, बस इतना ही हूँ, ऐसा ही अनादि काल से हूं और अनन्त काल तक ऐसा ही रहूंगा। जब स्वयं को ऐसा अनुभव किया तो कुछ भी होने का सवाल ही नहीं रहा, कोई भय न रहा एवं इच्छा व कषाय करने का प्रयोजन भी चला गया। जब शरीर मेरा है नहीं और मेरा मरण है नहीं तो मरण का भय कैसा ? अपना वैभव, आत्मा के अनन्त गुण अपने पास है, अन्य सांसारिक वैभव अपना हो ही नहीं सकता तो वैभव की इच्छा कसे हो ? अपना सब कुछ अपने में हैं, चेतना के अनन्त गुण ही मात्र मेरे हैं, वे कहीं बाहर जा नहीं सकते और बाहर से उनमें कुछ भी आकर मिलने वाला भी नहीं तो तो अन्य धन, परिवार आदि सबको चाह कैसे हो? इसी प्रकार मेरा कोई अनिष्ट नहीं तो क्रोध किस पर करूं? कोई मुझसे बड़ा-छोटा नहीं तो
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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