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________________ (१८) भाता इप्टा में आ गया। अब मे भीतर का स्वाद आ गया, वास्तविक मोक्षमार्ग का ज्ञान हो गया। रागवश बाहर जाता है पर फिर अपने को मावधान कर भीनर में जाने की कोगिन करता है. फिर बाहर जाता है, फिर भीतर का पृरुपाचं करना है और प्रेमा करते-करते ही इसका भीतर गहने का समय बढ़ने लगता है और बाहर जाना, पर में उपयोग जाना घटने बगना है, और दिनमी में नया स्थिति हो जाती है। जैसे किमी बन्न वामहमउगनी ने की आदन पर गई। बार-बार समझाए जाने पर भी उसकी ममममहीन बंटना था कि यह आदत गदी है और अब नब ग्यय उसकी ममल में न बंट किटम मुझं छोड़ना चाहिए तब तक नो उमनपा प्रमही नहीं उटना पर एक दिन बार-बार मनते-सुनते उसको ममान में आया कि यह आदत बहन बर्ग है । अब वह दम विषय में गावधानी बनना है कि महम उगली न जाए पर जंग ही जग मी अमावधानाहानी है फिर वह ग्वभावन अन्दर पहन जानो है, फिर मावधान होकर उग बाहर निकालना है और नामम्बधी मावधानी बनाने का निम्तर परुपा करता है, और माकन-निक गजबह पाना है कि अब पूर्ण जागतिहाग और अय अगनी ममबल नही जानी, अब आदन पूर्ण. मेष ट ग :मी प्रसार जानी क. भी ग्वाप में रमणता बढाने-बनाने कपाय घटने लगती है और पूर्व मानन कमां का निजंग होती चली जाती है ओर आगामी आमय बध ग हो ही नहीं रहा है क्योंकि आयव बध का मनन कर में अपने पाप अजानना थी वह उसके नष्ट हो गई । जो कुछ पारा आम बध होना भी है. वह तुच्य है, उसको यहाँ गिनती में नहीं लिया गया) और दम प्रकार निजंगहात होत जब इसकी आत्मा में लीनता पाती। तो बाहर में भी प्रत, प आचरण होता चला जाता है, भीतर में जितनी स्थिरता बनमी उनना बाहर में परिवर्तन आना ही पड़ेगा और हम प्रकार इमक गुणस्थाना में बढवाग होती चली जाती है और समने मचित कर्म नष्ट होकर दमकी कामं में मांस हो जाती है. मात्र एक अकेली बतना अपने मृद स्वरूप में विगबनी हुई बाकी बच रहती है। मातापने को सहज किया--मानी बारम्बार अनुभूति करने का नहीं बन जाता प रहने का ही पुरुषार्थ करता है और उसे 'मैं जाता है. में जातामा विकल्प नहीं करना परता। दोपक जल रहा है, वह यह विकल्प नही करना वि. मे प्रा कर रहा है. मैने हनने पदार्थों को प्रकाशित किया, अभी वकयों निकला था उस भी मैन प्रकाशित किया पा'
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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