SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुदात्म-द्रव्यधकार मालिनी मणिकमिदमिहकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं, निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोविमेवम् । अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघः स्वयमयमभिषिञ्चश्चिञ्चमत्कार एवं ॥१४॥ अब बोद्धमती प्रतिबद्ध किया जाता है। मे कोई जीव जो वर्तमान बोदधर्म के मानने वाले है वे अपने ज्ञान में कत्तापने और भोक्तापने को अलग-अलग कर देते है। भावार्थ-वे"मा कहते है कि क्रिया का कर्ता कोई अन्य है और भोक्ता कोई अन्य है। क्योंकि एक समय मात्र पहले का जीव दूसरे समय में मल से विनश जाता है और अन्य नया जीव मल में उपज आता है। जो चैतन्य स्वरूप जीव द्रव्य अनादि निधन है उसमें उनकी यह मिथ्या प्रांति एसी ही हो रही है जैसे कोई अपने नेत्र रोग के कारण श्वेत शंख को पीला देखता है । 'अन्य नया जीव मूल में उपज आता है इसी मान्यता के कारण वह यह मानता है कि कर्ता कोई अन्य जीव है और भोक्ता कोई अन्य जीव है। मे जीव को दृष्टांत में ममझाते है किसी जीव ने बाल्यावस्था में किसी नगर को देखा और फिर कुछ काल बीत जाने पर तरुण होने पर फिर उसी नगर को देखा तो उमको मा ज्ञान उपजता है कि यह वही नगर है जो मने बाल्यावस्था में देखा था। सी जो अतीत-अनागत-वर्तमान में शाश्वत ज्ञान मात्र वस्तू है वह क्षणिकवादी के मिथ्यात्व को दूर करता है। भावार्थ यदि जीव हर क्षण विनस्वर होना तो पूवं ज्ञान को लेकर जो वर्त. मान ज्ञान होता है वह किसको होता है इसलिए जीवद्रव्य सदा शास्वत है, इस प्रकार णिकवादी प्रतिबद्ध होना है। निश्चय में जीव का जीवन-मल सदा-काल अविनश्वर है, आनी शक्ति मे आप ही मिद्ध है, ऐमा जानना, अन्यथा नहीं ॥१०॥ बोहा-बौढ मणिकवादी कहे, भग भंगुर तनु मांहि । प्रथम समय जो जीव है, द्वितीय समय सो नाहि ।। ताते मेरे मतविय, करे करम जो कोय, सोम भोगवे सबंबा, और भोगता होय ॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy