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________________ १५२ समयसार कलश टोका यह एकंत मिथ्यात पख, दूर करनके काज । चिढिलास प्रविचल कथा, भाषे श्रीजिनराज ।। बालकपन काह पुरुष, देखो पुर इक कोय। तरुण भए फिरके लखे, कहे नगर यह सोय ॥ जो बुहपन में एकघो, तो निहि मुमरण कोय । और पुरुषको अनुभब्यो, पोर न आने जोय ॥ जब यह वचन प्रगट मुन्यो, मुन्यो जनमत गुठ। तब एकांतवादो पुरुष, जंन भयो प्रतिबुद्ध ॥ अनुष्टुप वृत्यंशमेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भुङ्क्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ॥१५॥ क्षणिकवादी का और भी प्रतिबोधन करते है। द्रव्याथिक व पर्यायायिक भेद को अलग-अलग जाने विना पकड बैठना कि 'वस सर्वथा ऐसा ही है'-सा किसी भी जीव कोवान में भी श्रद्धान न हो। किमी दूमर प्रथम समय में उपजा कोई जीव कर्म का उपार्जन करता है आर किसी अन्य दूसरे समय में उपजा जीव उम कर्म को भोगना है, ऐमा एकान्तपना मिथ्यात्व है। भावार्थ जीव वस्तु द्रव्यरूप है और पर्यायरूप है। द्रव्यरूप से यदि विचार करें तो जो जोव जिम कर्म का उपार्जन करता है वही जीव उदय माने पर उस कर्म को भोगता है और याद पयांय दृष्टि से विचार कर तो जिस परिणाम अवस्था में ज्ञानावग्णादि कर्मो का उपार्जन किया था, उनके उदय में आने के समय उन परिणामा का अवस्थान्तर हो जाता है इसलिए कोई अन्य पर्याय करता है और कोई अन्य ही पर्याय भोगती हैऐसा भाव स्यावाद साध सकता है। जंसा बौद्ध मतावलम्बी जीव कहता है वह तो महाविपरीत है। द्रव्य का एमा ही स्वरूप है इसमें किसी का क्या चारा है ? एक द्रव्य को अनन्न अवस्थाएं होती हैं। कोई अवस्था मिटती है और अन्य कोई उपजती है ऐसा अवस्था भेद ता अवश्य है पर इसी अवस्था भेद से छला जाकर कोई बौद्धमत में अवस्थित मिथ्यादृष्टि जीव, जो सता. रूप शाश्वत वस्तु है उसी की सना का मूल से ही नाश मान लेता है - नो यह तो विपरीतपना है। भावार्थ-पर्याय मात्र को हो वस्तु मान लेना तथा
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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