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________________ १८० ममयसार कलश टीका अब म्यादाद दृष्टि में जीव का स्वरूप कहते हैं। जिन्होंने नोक्त म्यादाद म्वरूप को अंगीकार किया है ऐसी जो मम्यग्दष्टि जीव राशि है वह जमे सांध्यमती जीव को मर्वथा अकर्ता मानता है वैमें जीव-द्रव्य रागादि अशुद्ध परिणामों का सर्वथा कना नहीं है, ऐमा न अंगीकार करे। जैनमती (जीव को) सर्वथा अकतां मत मान, जसा मानना योग्य है वैसा कहते हैं। सभी काल में जीव का म्वरूप मा है कि शद म्वरूप सम्यक्त्व परिणमन में भ्रष्ट हुआ मिथ्यादष्टि जीव जब तक मोह-गग-द्वेष रूप परिणमन कर रहा है तब तक माह-गग-द्रपम्प अगद्ध चनन परिणामों का कत्ता वह स्वयं है. सा अवश्य माना, मो प्रतीति कगे। वही जीव मिथ्यात्व परिणामों के छूटने पर जब अपनं गड म्वरूप सम्यक्त्व भाव में परिणमन करता है तब गगादि अशुद्ध भावों में कतांपने को छोड़ता है... मी ही श्रद्धा करो, मी ही प्रतीति करी-मा अनुभव करो। भावार्थ-जैसे जीव का ज्ञानगृण स्वभाव होने मे जानगृण संसार अवस्था या मोक्ष अवस्था में कही भी नहीं छूटता, वैमा रागादिपना जीव का स्वभाव नहीं है नथापि मंमार अवस्था में जब तक कर्म का संयोग है और जब नक मोह-राग-द्वेष रूप में अशुद्ध भावों में जीव परिणमन कर रहा है तब तक वह कर्ता है । जीव के मम्यक्त्व गुण रूप परिणमन होने के उपगंत तो वह मकल जंय पदार्थों को जानने के लिए उतावला ज्ञान का प्रताप मात्र है। म्वय ही स्वयं रूप पर प्रगट हआ है, चार गतिया में भ्रमण मे रहिन हुआ है, जानमात्र उसका स्वरूप है तथा गगादि अशुद्ध परिणति मे रहित शुद्ध वस्तु मात्र है ।।१३।। संबंया-मे सोल्यमति कहे मला प्रकरता है, मध्या प्रकार करता न होड करही। से जिनमति गुरुमुख एक पक्ष मुनि, बाहि भांति माने सो एकांत तमो प्रयही॥ जोलों दुरमति तोलों करमको करता है, सुमती सदा प्रकरतार को सब हो। जाके घटनायक स्वभाव जग्यो जवही सों, सोतो जगजालसे निरालो भयो तबही ॥१३॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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