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________________ -अधिकार तेई बन्ध पद्धति विडारि पर संग भारि, भाप में मगन हं के प्रापरूप भये हैं ||८|| वसंततिलका प्रच्युत्प शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबन्धमिह विश्वति पूर्वबद्धद्रव्यात्सर्वः कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥६॥ ܕܕ जो कोई उपशम सम्यग्दृष्टि अथवा वेवकसम्यग्दृष्टि जीव शुद्धचैतन्य स्वरूप के अनुभव से भ्रष्ट हुआ है अर्थात् जिसका शुद्ध स्वरूप का अनुभव छूट गया है उसके राग-द्वेष-मोहरूप परिणाम हो जाते हैं और वह ज्ञानावरणादि कर्मरूपपुद्गल के पिंडों का नया उपार्जन करता है । भावार्थ - जब तक सम्यकदृष्टि जोव सम्यक्त्व के परिणामों से युक्त रहता है तब तक उसके राग-द्वेष-मोह आदि अशुद्ध परिणामों के न होने से ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध नहीं होते। पीछे यदि सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के परिणामों से भ्रष्ट होता है तो राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामों के होने से ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व का परिणाम अशुद्धरूप है । वह कर्मबन्ध उन नाना प्रकार के राग-द्वेष-मोह परिणामों का समूह है जो सम्यक्त्व उपजने से पूर्व मिथ्यात्व राग-द्वेष परिणामों से बंधे पुद्गल fisरूप मिध्यात्वकर्म तथा चारित्रमोह कर्मों के कारण हुए हैं। भावार्थजितने समय तक जीव ने सम्यक्त्व के भावरूप परिणमन किया उतने समय चारित्रमोह कर्म कीले हुए सांप की तरह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं था । वही जीव जब सम्यक्त्व के भाव से भ्रष्ट हुआ और मिथ्यात्व भावरूप परिणमा तो उस समय चारित्रमोह कर्म अकीले हुए साँप की भांति अपना कार्य करने में समर्थ हो गया । अर्थात् चारित्रमोह का कार्य जीव के अशुद्ध परिणमन में निमित्त होना है, उसमें वह समर्थ हो गया । मिथ्यादृष्टि जीव के तो सभी चारित्र मोह कर्म से बन्ध होगा ही । परन्तु जब जोव सम्यक्त्व पाता है तब जो चारित्रमोह के उदय से बन्ध होता है उस समय बन्ध शक्तिहीन होने के कारण वह बन्ध नहीं कहाता । इसलिए ऊपर सम्यक्त्व के समय चारित्रमोह को कीले हुए सांप की भांति बताया है। और मिथ्यात्व
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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