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________________ १०१ समयसार कलश टीका के समय चारित्रमोह को अकीले सांप की भांति बताया। उपरोक्त कथन का ऐसा भावार्थ समझ लेना चाहिए ॥६॥ सर्वया - जेते जोव पंडित क्षयोपशमी उपशमी, इनकी व्यवस्था ज्यों लुहार की संडासी है। खिर प्राणिमांहि खिल पारिणमहि तसे येउ, खिर में मिध्यात विरण ज्ञानकला भासी है । जो लों ज्ञान रहे तोलों सिथल चरणमोह, जैसे कोले नाग को सकति गति नासी है। प्रावत मिष्यात तब नानारूप बंध करे, जेउ कोले नाग की सकति परगासी है ॥६॥ अनुष्टुप इदमेवाव तात्पय्यं हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्यागाद्वन्ध एव हि ॥१०॥ इस समस्त अधिकार का निश्चय में इतना ही (बताना) कार्य है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के अनुभव को सूक्ष्मकाल मात्र के लिए भी बिसारना योग्य नहीं है क्योंकि शुद्धस्वरूप का अनुभव छूटे बिना ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध नहीं होता । शुद्ध स्वरूप का अनुभव छूटने पर ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध है । भावार्थ स्पष्ट है ॥ १० ॥ दोहा-यह निचोर या ग्रंथ को, यह परम रस पोल । तजे शुद्धनय बंध है, गहे शुद्धनय मोल ॥१०॥ शार्दूलविक्रीडित धीरोदारमा हिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिम् । त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम् ॥ तत्रास्थाः स्वमरोचिचक्रम चिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः । पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ॥११॥ सम्यकदृष्टि जीव को उस शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु के अनुभव को सूक्ष्म कालमात्र के लिए भी विस्मृत नहीं करना चाहिए जो आत्मस्वरूप में अतीन्द्रिय सुख स्वरूप परिणति का परिणमन करवाता है । शाश्वतरूप से धाराप्रवाहरूप परिणमनशील होना जिसकी महिमा है, जिसका न आदि है बीर
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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