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________________ ܘܘܟ ७॥ समयसार कलश टोका लिए कर्मबन्ध का कर्ता मम्यकदृष्टि जीव नहीं होता ॥७॥ दोहा-जो हित भावमु राग है, अहित भाव विरोष। भ्रमभाव विरोष है, निर्मल भाव सुबोष। गग विरोष विमोह मल, येई प्राथव मूल । घेई कर्म बढ़ाइके, करे धर्म की मूल ॥ जहां न रागारिक दशा, सो सम्यक परिणाम । पाते सम्पबन्त को, कयो मिराबब नाम ॥७॥ वसंततिलका अध्यास्य शूबनयमुढतबोधचिह्नमकायमेव कलयंति सदेव येते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारं ॥८॥ जो कोई निकट भव्य जीव समम्त रागादि विकल्पों से चित्त निरोध करके और निश्चय मान कर उम निविकल्प शुद्ध चतन्य वस्तु मात्र का सदा काल धारा प्रवाह म्प से अभ्यास करता है कि जिसका लक्षण है कि उसमें जानगुण सर्वकाल प्रगट है । वह जीब निश्चय मे सकल कर्मों से रहित अनंत चतुष्टय से युक्त परमात्म-पद को प्रकट ही प्राप्त करता है। वह परमात्मा पद अनादिकाल से एक बंध-पर्यायम्प चले आये ज्ञानावरणादिकर्मरूप पुदगल पिण्डों से सर्वथा रहित है। भावार्थ .. जो सकल कमों का भय करके शुद्ध हुमा है उस शुरु स्वरूप का अनुभव करता हुआ वह जीव ऐसा है कि जिसका परिणाम राग-द्वेष-मोह से रहित है और वह निरन्तर ऐसा ही है। भावार्ष-यदि कोई कहे कि हर समय ऐसा हो जाता होगा जैसा ऊपर वर्णन किया है। सो यह बात नहीं है, वह तो सदा, सभी समय में शुरूप रहता है ।।८।। संबंया-कोई निकट भम्यराशी जगवासी जीव, मियामत मेखि मान-भाव परिणये हैं। जिन्ह के मुदृष्टि में न रागसंष-मोह कहूं, बिमल त्रिलोकनि में तोनों जोति लये है। तजि परमार घट सोधि निरोष बोग, शुस उपयोग की दशा में मिलि गये हैं।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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