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________________ आसव-अधिकार मनसों प्रगोबर प्रबुद्धि पूरवक भाव, तिनके बिनास को उद्यम परतु हैं ॥ याही भांति पर-पररगति को पतन करें, मोक्ष को जतन करें भोजल तरतु हैं । ऐसे ज्ञानवंत ते निरास्रव कहावे सदा, जिन्हें को सुजस सुविचक्षरण करत हैं ॥४॥ धनुष्टुप् सर्वस्यामेवजीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ । कुतो निरालवो ज्ञानो नित्यमेवेति चेम्मतिः ॥५॥ कोई आशंका करता है कि सम्यकदृष्टि जीव को सर्वथा निरालव कहा और है भी यही । परन्तु ज्ञानावरणादि द्रव्यपिण्ड जैसे थे वैसे के वैसे ही हैं; तथा उन कर्मों के उदय से जो भांग सामग्री प्राप्त थी वह भी सब वैसी की वैसी ही है; तथा उन कर्मों के उदय में नाना प्रकार के सुख-दुःख भी भोगता है : इन्द्रियों और शरीर सन्बन्धी सामग्री जैसी थी वैसी हो है और सम्यकदृष्टि जीव उम सामग्री को भोग रहा है । इतना सब रहने पर भी निरालवपना कैमे घटित होता है ? यह प्रश्न उठाया गया है। जीव के प्रदेशों में ही पुद्गल पिण्डरूप अनेक प्रकार के मोहनीय कर्म परिणमते हैं और बहुत काल तक जीव के प्रदेशों में स्थित रहते हैं। आत्मा जो भी थी जैसी भी थी, वैसी ही है। फिर भी निश्चयपूर्वक कहा है कि सम्यक दृष्टि जीव सर्वधा, सर्व काल आलव से रहित है - ऐसा किस विचार मे कहा ? उत्तर में आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! यदि तेरे मन में ऐसी शंका उपजी है तो उसका उत्तर सुन कहते हैं ||५|| सर्वया क्यों जग में विचरे मतिमंद, स्वछन्द सवा बरतं बुध तंसे । चंचल चित प्रसंजम बैन, शरीर सनेह यथावत जैसे || भोग-संयोग परिग्रह-संग्रह, मोह विलास करे जहां ऐसे । पूछत शिष्य प्रचारज को यह, सम्यक्वन्त निराखव कंसे ||५|| मालिनी ७ विवहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः, समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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