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________________ समयसार कलश टीका तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः ॥ ६ ॥ सम्यकदृष्टि जीव के किसी भी नय से, ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्ड का नूनन आगमन, कर्मरूप परिणमन नहीं होता अथवा जो कभी सूक्ष्म, अबुद्धिपूर्व रागद्वेष परिणाम मे बन्ध होता भी है तो वह बहुत ही अल्पबन्ध होता है। तो भी वह इतना अल्प होता है कि उसे सम्यक्दृष्टि जीव के बंध होता है ऐसा कोई त्रिकाल में भी नहीं कह सकता। जितने भी शुभरूप अथवा अशुभरूप प्रीतिरूप परिणाम, दुष्टरूप परिणाम, अथवा पुद्गलद्रव्य की विचित्रताओं (नाना प्रकार के रूपों व अवस्थाओं) में आत्मबुद्धि का जो विपरीत परिणाम है उनसे जो रहितपना है उसके कारण सम्यकदृष्टि जीव के बन्ध घटित नहीं होता। सारी सामग्री होते हुए भी सम्यकदृष्टि जीव कर्म का कर्ता नहीं है । सारी सामग्री इसलिए है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले जीव मिथ्यादृष्टि था उससे जो मिथ्यात्वरूप तथा चारित्रमोहरूप पुद्गलकर्मपिण्ड, रागद्वेष आदि मिथ्या परिणामों के कारण बंधा था वह मत्ता -स्थिति-बंधरूप जीव के प्रदेशों में वैसा ही पड़ा है, उसने अपना अस्तित्व नही छोड़ा और उदय में भी आता है। समय-समय पर अखंडित धारा प्रवाह रूप वह पूर्व का बंधा कर्म उदय में आकर नाना सामग्री प्रस्तुत करता रहता है तो भी सम्यक दृष्टि जीव कर्मबन्ध का कर्त्ता नहीं है। દ भावार्थ - यद्यपि अनादिकाल के मिथ्यादृष्टि जीव ने काललब्धि पाकर सम्यक्त्व गुणरूप परिणमन किया परन्तु चारित्रमोहकर्म की सत्ता तो अभी वैसी ही है और उदय भी वैसा ही है। उसके पंचेन्द्रियों के विषयों के संस्कार भी मे ही है और उनको भोगता भी है। ज्ञानगुणयुक्त होने से भोगते हुए उनका वेदन भी करता है तो भी, जैसे मिथ्यादृष्टि जीव आत्मस्वरूप को नही जानता है और कर्म के उदय को ही अपना जानता है तथा इष्ट या अनिष्ट सामग्री को भोगना हुआ उनमें राग-द्वेष करता है, वैसा सम्यक दृष्टि जीव नही है । सम्यकदृष्टि जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है | शरीरादि समस्त सामग्री को कर्म का उदय जानता है। उदय में आया तो उसको भोगता व बरतता है परन्तु अंतरंग में परमउदासीन है । इसलिए सम्यक्दृष्टि जीव के कर्मबन्ध नहीं है। ऐसी अवस्था सम्यकदृष्टि जीव की सर्वकाल नही रहतो । तब तक ही रहती है जब तक वह सकल कर्मों का क्षय करके निर्वाण पदवी को नहीं पा लेता ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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