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________________ E समयसार कलश टीका कहते हैं। ऐसे परिणाम जीव की जानकारी में हैं और उनको सम्यकदृष्टि जोव मिटा सकता है। क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसमें ऐसा करने की सामर्थ्य है। अबुद्धिपूर्वक परिणाम उनको कहते हैं जो पांच इन्द्रियों तथा मन के व्यापार बिना ही, मोह कर्म के उदय का निमित्त पाकर, मोहराग-द्वेष रूप अशुद्ध विभाव परिणाम रूप स्वयं ही जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेशों में परिणमते हैं। ऐसा परिणमन जीव की जानकारी में नहीं और जीव की सामथ्यं में भी नहीं इसलिए जैसे-तैसे मिटाया नहीं जा सकता । तब ऐसे परिणाम मेटने के लिए निरंतर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने से वे सहज ही मिट जाते हैं। और तो कोई उपाय हो नहीं है, मात्र एक शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही उपाय है। और क्या करने से निरास्रव होता है ? शुभरूप अथवा अशुभरूप जितनी भी शेय पदार्थों में रंजायमान होने की परिणाम क्रियाएं हैं उनको मूल से उखाड़ता हुआ सम्यकदृष्टि (जीव) निरास्रव होता है । भावार्थ - शेय और ज्ञायक का संबंध दो प्रकार का है। एक तो जानना मात्र है और रागद्वेषरूप नहीं है-जैसे केवन्नी सकल जय वस्तुओं को देखने और जानते हैं परन्तु किसी वस्तु में राग-द्वेष नहीं करते हैं। उसका नाम शुद्ध ज्ञान चेतना कहा । सम्यदृष्टि जोन के शुद्ध ज्ञान चेतनारूप जानपना है इसलिए मोक्ष का कारण है, बन्धका कारण नहीं है। दूसरा जानना ऐसा है कि कितनी ही विषय वस्तुओं को जान रहा है ओर माह् कर्म के उदय का निमित्त पाकर इष्ट वस्तुओं में राग कर रहा है, उनके भोग की अभिलाषा कर रहा है, तथा अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष करता है, अरुचि करता है, सो ऐसा जो रागद्वेष से मिला हुआ ज्ञान है उसका नाम अशुद्धचंतना लक्षणावाली कर्म चेतना अथवा कर्मफल चतनारूप कहा है और इसीलिए वह बन्ध का कारण है। ऐसा परिणमन सम्यकदृष्टि का नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्वरूप परिणाम के चले जाने पर ऐसा परिणमन नहीं होता है । ऐसे अशुद्ध ज्ञान चेतनारूप परिणाम मिध्यादृष्टि के होते हैं ॥ और कैसे निरालब होता है ? पूर्णज्ञानरूप होता हुआ निरास्रव होता है। भावार्थ-राग-द्वेष से मिला हुआ ज्ञान खंडित ज्ञान है। रागद्वेष के चले जाने पर ज्ञान का पूर्ण होना कहा है। ऐसा होता हुआ सम्यक्दृष्टि जीव निरास्रव होता है ||४|| सर्वया - जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि पूरबक, तिन परिणामन की ममता हरतु हैं ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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