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________________ आत्रव-अधिकार रुन्धन सर्वान् ब्यकर्मानवौधान एपोमावः सर्वमावालवाणान् ॥१॥ जिस जीव के काललब्धि पाकर सम्यक्त्व गुण प्रकट हुआ और जिसके सुख मान चेतना मात्र का कारण पाकर शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप परिणाम हुए वह जीब, असंख्यात लोक मात्र जितने भी अशुद्ध चेतनारूप राग-रेषमोह आदि जीव के विभाव परिणाम हैं उनका, तथा उनके निमित्त से उपजे सब मानवरणादि पुद्गल कमों का, मूलोन्मूल विनाश कर देता है। भावार्य-जिस काल शुद्ध चैतन्य वस्तु की प्राप्ति होती है उस काल मिथ्यात्व-गग-देष रूप जीव के विभाव परिणाम मिटते है। यह एक ही समय में होता है। इसमें समय का अन्तर नहीं है। शुरभाव शुढचेतनमात्र भाव है और रागादि परिणाम से रहित है। द्रव्यकर्म अर्थात् मानवरणादि कर्म पर्यायरूप पुद्गल पिण का समूह धाराप्रवाहरूप से परिणमित होकर समयममय आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो रहा है। भावार्ष-जो कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादिरूप परिणमन करता है उसके असंख्यात लोक मात्र मेव हैं । सम्यक्त्व गुण प्रकट होकर समस्त कर्म-जो धारा प्रवाह रूप आ रहे हैंउनको रोक देता है। भावार्थ- अगर कोई ऐसा माने कि जीव के शुद्ध भाव होने से रागादि अशुट परिणाम मिटते हैं परन्तु आस्रव से होता था वैसे ही होता है- सो ऐसा तो नहीं है । जैसे कहा है वैसा है। जीव के शुद्धभावरूप परिणमन से अवश्य ही अशुद्ध भाव मिटने हैं, अशुट भाव के मिटने से अवश्य ही द्रव्यकर्मरूप आस्रव मिटते हैं- इसलिए शुढभाव उपादेय है, अन्य समस्त विकल्प हेय हैं ॥२॥ संबंया-क्ति पायव सो कहिए जहि, पुदगल बीच प्रवेश गरासं। भावित मानब सो कहिए बहि, राग विमोह विरोष विकासे ॥ सम्यक परति सो कहिए बहि, रक्षित भावित प्राभव मासे। मामकला प्रगटे लिहिं पानक, अन्तर बाहिर और , भाले ॥२॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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