SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय प्रास्त्रव-प्रधिकार द्रुतविलंबित प्रथमहामनिर्भरमन्यरं समररङ्गापरागतमात्र । प्रयमुबारगमीरमहोदयो, जयति दुर्जयवोषधनुर्वरः ॥१॥ यहां में | आगे] यह कथन करेंगे कि गद्ध स्वरूप अनुभव रूपी योदा, रागादि परिणाम लक्षण वाले आरव को मिटाना है। भावार्थ-यही में लेकर आरव का स्वरूप कहेंगे । एक ओर में शाश्वन अनन्त शक्तिमे युक्न [निज] स्वरूप, और दूसरी ओर से आम्रव (जिसके आधीन होने में ममम्न मसारो जीवराशि गवं-अभिमान में मग्न होकर मतवाली है। संग्राम भूमि में सन्मुख आए हैं। भावार्थ-जैसे प्रकाश और अन्धकार परम्पर विरुद्ध हैं वैसे ही शुद्ध ज्ञान और आम्रव विरुद्ध है ॥१॥ संबंया-जेते जगवासी जीव पावर जंगम रूप, तेते निज बस करि राखे बल तोरि के। महाअभिमानी ऐसोमानवअगाध जोपा, रोपि रमपम्भ ठाडो भयो चमोरि के॥ प्रायो तिहि पामक प्रचानक परम पाम, मान नाम सुभट सवायो बल फोरिके। माधव पछारो रगषम्भ तोपिरपोताहि, निरखि बनारसी नमत कर जोरि के ॥१॥ शालिनी भावो रागषमोहेविना यो, बीवस्य स्थान माननित एव ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy