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________________ समयसार कलश टीका उपजाति भावानवामावमयं प्रपन्नो, ग्यानबेम: स्वत एव भिन्नः । मानी सदा ज्ञानमयंकमावो, निरासबो कायक एक एव ॥३॥ द्रव्याप ऐसा है कि जो मानी जीव अर्थात् सम्यष्टि जीव गगादि अणुद परिणाम मे रहिन है, शुटत्वरूप जिसका परिणमन है, जो म्वद्रव्यम्वरूप और परद्रव्यस्वरूप समस्त शेय वस्तुओं को जानने में समर्थ है, जो सर्व काल अर्थान् हर समय धाराप्रवाहरूप चेतनरूप एक भाव में परिणमन कर रहा है, वह सम्यकप्ट जीव आश्रव से रहित है। अब सम्यकदृष्टि जोव निराश्रव कैसे सिद्ध होता है, यह कहेंगे । [वह सम्यदृष्टि जीव] मिथ्यात्व राग-देषरूप अशुद्ध चेतना परिणामों के विनाश को प्राप्त हा है। भावार्थ-अनन्त काल से लेकर जीव मिथ्यादृष्टि होता हुबा मिथ्यात्व-राग-परूप परिणमन कर रहा था उसी का नाम आस्रव है। वह तो काललम्धि पाकर वह जीव सम्यक्त्व पर्यायरूप परिणमा, शुद्धतास्प परिणमा, उसके अशुद परिणाम मिटे, और इस प्रकार भावास्रव से रहित हुमा । जो मानापरणादि कर्म पर्यायरूप से जीव के प्रदेशों में बैठे हैं, उन पुद्गल पिंडों से यह जीव स्वभाव ही से भिन्न है और सब काल में निराला ही है। भावार्थ-आस्रव दो प्रकार का है-एक द्रव्यास्रव और एक भावानव। मात्मा के प्रदेशों में जो पुदगलपिट कर्मरूप बैठे हैं उनको द्रव्यास्रव कहते हैं। यह जीव स्वभाव ही से इन द्रव्याखवों से रहित है। इससे यद्यपि जीव के प्रदेश और पुद्गलपिर के प्रदेश एक ही क्षेत्र में रहते हैं तथापि वे दोनों वस्तुतः-स्व-सत्ता और गुण-स्वभाव में रहने से एक द्रव्यरूप नहीं होते हैं। अपने-अपने द्रव्य गुण पर्यायरूप ही रहते हैं । पुद्गल पिगे से जीव मित्र है। भावात्रव अर्थात् मोह-राग-देष रूप विभाव-अशुद्ध चेतन परिणाम यद्यपि जीव की मिथ्यादृष्टि अवस्था में ऐसे ही होते हैं तबापि सम्यक्त्व रूप परिणमन से अशुद्ध परिणाम मिट जाते हैं। इसलिए सम्यकदष्टि जीव भावासब से रहित है। इससे ऐसा अर्थ निकला कि सम्यकदृष्टि जीव निरालय है॥३॥ चौपाई-बोम्यानमम होई। वहं भावाला भाव न कोई॥ चाकोपमा मानव महिए।तोमातार निराब करिए ॥३॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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