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________________ पंचम पिण्डेषणा अध्ययन ७३ (२८) बोहा-तित इत उतकों गरती, परस भोजन जोइ । देनहारि सों यों कहै, ऐसो चहिय न मोह ॥ अर्थ-साधु के लिए आहार-पानी देती हुई स्त्री यदि कदाचित् आहार-पानी को भूमि पर गिरावे तो मुनि उस देने वाली से कहे कि इस प्रकार का आहार-पानी मेरे लिए नहीं कल्पता है, अर्थात् मेरे ग्रहण करने के योग्य नहीं है। (२९) दोहा-बीज हरित प्रानीनि कों मरदन करती होइ । जानि असंजम-कारिनी, देति तर्ज मुनि सोय ॥ .. अर्थ-यदि प्राणियों को, बीजों को और हरियाली को कुचलती-रौंदती हुई त्री आहार-पानी को देवे तो साधु उसे असंजम-कारिणी जानकर उससे आहार-पानी नहीं लेवे। (३०-३१) चौपाई- ऐसेइ मनि-हित सचित मिलाई, वा सचित्त पर अचित्त रखाई। पोसि हिलाय नीर-अवगाही, भोजन-पान जु देय चलाई। देनहारि-सों मुनि कह ऐसो, मोको नहिं कल्पित है तेसो । 'सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्प जो, ताही को सेऊ ॥' __ अर्थ-- एक वर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर, सचित्त वस्तु को अचित्त वस्तु के साथ मिलाकर, या सचित्त पत्रादि के ऊपर रखकर, सचित्त को हिलाकर, घड़े आदि से भरे जल को हिलाकर, पानी में से चलकर, आंगन आदि में ढले हुए जल 7 निकाल कर साधु के लिए आहार-पानी देवे तो उस देने वाली से कहे कि ऐसा हार-पानी मेरे लिए नहीं कल्पता है। (३२) सोरठा- पहिले किये सदोस, हाय कुरछि भाजन तथा । कहे जु रही परोसि, ऐसो कल्पत मोहि नहि ॥ अर्थ-पुराकर्म-कृत' हाथ से, करछी से या वर्तन से भिक्षा देने वाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है। १ पाठान्तर-'यह कल्पै नहिं मोइ'। २ साधु को भिक्षा देने के लिए पहिले सचित्त जल से हाथ-कलछी आदि का धोना या अन्य इसी प्रकार का आरम्भ करना पुराकृत-कर्म कहलाता है।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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