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________________ चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन बोहा-जब सुर-नर के भोग जे, जान असार बुलेत । । तब बाहिर भीतर हुके, संजोगनि तजि देत ।।..: अर्थ-जब मनुष्य दैविक और मानुषिक मोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह भीतरी और बाहिरी संयोग को त्याग देता है । दोहा-जब बाहिर भीतर है के, संयोगनि तजि देत । .. .. तब मुखित हूं के गहै, पद अनगार सहेत ।। . अर्थ-जब मनुष्य भीतरी और बाहिरी सब संयोग को त्याग देता है, तब वह मुंडित होकर अनगार (साधु) वृत्ति को स्वीकार करता है। (१९) दोहा-जब मुंडित ह के गहै, पद अनगार सहेत .. तब महान संवर परसि, परम धरम को लेत ॥ . , अर्थ-जब मनुष्य मुडित होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है। (२०) बोहा-जब महान संवर परसि, परम धरम को लेत । तब अबोधि पातक मई, झटक करम-रज देत ।। अर्थ-जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, ।ब वह अबोधि (अज्ञान और मिथ्यात्व) रूप पाप-द्वारा संचित कर्म-रज को धुन डालता है। (२१). बोहा-जब अबोधि पातक मई, मटकि करम-रज देत । तब सब व्यापी शान मर दरसन को पा लेत॥ अर्थ-जब वह अबोधि रूप पाप-द्वारा संचित कर्म-रज को धुन डालता है, तब वह सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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