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________________ नवम विनय-समाधि अध्ययन २२३ (१५) परी- ते हू ता गुरु को करत सेव, ता शिल्प-कला के हेतु एव । सत्कार करत अर परत पाय, आज्ञा-वश-वर्तत मुक्ति माय । अर्थ-वे जन भी उस शिल्प-कला के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं और सन्तुष्ट होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। (१६) पडरी-फिर कहा, करत श्रुत-ग्रहण जोय, चाहत अनन्त-हित वह न जोय । यातें आचारज जो कहत, नहिं करें उलंघन ताहि संत ॥ अर्थ - जो श्र त-ग्रहण करने वाला और अत्यन्त हितस्वरूप मोक्ष का इच्छुक है उसका फिर कहना ही क्या है । इसलिए आचार्य जो कहे, भिक्षु उसका उल्लंघन न करे। (१७-१८) कवित्तनीची सेज नीची गति, नीचोई निवास गहै. आसन हू नीचो गुरुदेव ज ते गहिये, नीचे मुकि चरन-कमलकों नमन कोजे, नोचे नमि शीस निज अंजुली हू लहिये। काया उपकरन गुरु के जो परस भये ताप कर जोर ऐसे नन होय रहिये, अहो भगवाद, अपराध मेरो क्षमा करो, 'अब न करू गो ऐसो' ऐसे कछु कहिये। अर्थ- साधु को चाहिए कि वह आचार्य से नीची अपनी शय्या रखे, नीची गति करे, नीचे खड़ा रहे, नीचा आसन रखे, नीचा होकर आचार्य के चरणों की वन्दना करे और नीचा होकर अंजलि करे (हाथ जोड़े) । अपनी काया से तथा उपकरणों से एवं किसी दूसरे प्रकार से आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे-भगवन् ! आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं फिर ऐसा नहीं करूंगा। (१९) सविलंबित बलद ज्यों बिगरेल सुभाय के, चपत चाबुक ताड़न पाय के। रव चलावत, त्यों सिख दुर्मती, करत काज कहाय कहाय के । अर्ष-जैसे दुष्ट बैल चाबुक आदि से प्रेरित होने पर रथ को वहन करता है, वैसे ही दुर्बुद्धि शिष्य आचार्य के बार-बार कहने पर कार्य करता है ।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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