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________________ अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन १७७ अर्थ - संयम की आराधना में समाधिवन्त साघु सचित्त पृथ्वी को, भीत को, शिला को, मिट्टी के ढेले को तीन करण और तीन योग से न तो उन्हें भेदे ( टुकड़ा करे और न घिसे । अर्थात् उन पर लकीर आदि न करे । वह शुद्ध ( शस्त्र से अपरिणत) पृथ्वी पर और सचित्त रज से संसृष्ट (भरे हुए) आसन पर न बैठे । अचित पृथ्वी का प्रमार्जन कर और उसके स्वामी से आज्ञा लेकर बैठे । ( ६--७) चौपाई - संजति सीतल जल नह सेवे, हिम हिम-उपलनि कों नहि लेवे । तपि के अचित भयो जो होई, ऊन्हो उबक गहीजे सोई ॥ सचित-सलिल-भीगी निज काया, तो न मले पूंछं मुनिराया । वैसी भांति देखि काया को, किंचित परसह करं न ताको ॥ अर्थ-संयमी साधु शीतल जल, ओले, बरसात का जल और हिम (बर्फ) का सेवन न करे ! तप कर जो प्रासुक हो गया है वैसा जल ग्रहण करे । जल से भीगे अपने शरीर को न पोंछे और न मले । शरीर को भीगा हुआ देखकर उसका स्पर्श न करे । (5) चौपाई - अर्गानि लोह-गत वा अंगारो, ज्वाल जोति-जुत काठ विचारो । नाह धोंके, न कर संघरसन, नहि मुनि वाको करे निवारन || अर्थ – मुनि अंगार, अग्नि, अच और ज्योति - सहित अलात (जलती लकड़ी) न प्रदीप्त करे, न स्पर्श करे और न बुझाये । (2) पत्रतें, वा तथा वीजं दोहा -ताल- व्यजनतें बाहिज पुदगल कों मुनि तालवृन्त के पंखे से, बीजने से, पत्र या शाखा से अपने शरीर को हवा न करे । इसी प्रकार बाहिरी पुद्गल (गर्म दूध आदि) को ठंडा करने के लिए भी हवा न करे । तरु-डाल हिलाय । नहि निज काय ॥ (१०) बोहा- - तर तृन को फल मूल कों, बहुविधि बीज सजीव को, छेवन करें न कोय । चित हुन चाहे सोय || अर्थ – साधु तृण (घास ) वृक्षादि को तथा किसी वृक्षादि के फल और मूल को तथा नाना प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे । १२
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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