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________________ छठामाचारका अध्ययन १२५ चौपाई- बहुत पान-सेविन को सो, पंच परम दुसचर है तसो । लोक हु में अस भयो न होई, को नहीं दूजे पल कोई ।। ___ अर्थ-मानव-जगत् के लिए इस प्रकार का अत्यन्त दुष्कर आचार निर्ग्रन्थदर्शन के अतिरिक्त कहीं नहीं कहा गया है। मोक्ष स्थान की आराधना करने वाले के लिए ऐसा आचार अतीत में न कहीं था और न कहीं भविष्य में होगा। चौपाई- जे अखंड अस्फुट करनीया, बाल-वृद्ध रोगिहुँ धरनीया। ते गुन जा प्रकार करि होई, ता प्रकार सों सुनिये सोई॥ अर्थ-बाल-वृद्ध, स्वस्थ और अस्वस्थ सभी मुमुक्ष ओं को जिन गुणों की आराधना अखण्ड एवं निर्दोष रूप से करनी चाहिए, उसे यथातथ्य रूप से सुनो। (७-८) चौपाई- अष्टादश थानक ए जानी, इनकरि दूषित होत अयानो । तिनमें एक हु थानक पाई, साधुपने से च्युत ह जाई ॥ दोहा-ब्रत अरु काया- षटक ये, वा अकल्प गहि पात्र । पलंग निषछा स्नान औ, शोभा नहि लवमात्र ॥ ये अट्ठारह थान है, इनसे बचि मुनिराज । लहु शिवपद को लेत है, हैकर जग-सिर-ताज ॥ वे अट्ठारह स्थान इस प्रकार हैंकवित्तसा' मुठ चोरी औकुसील परिग्रह' अरु, राति' को अहार छार पालें छह बात है, तो पय पावक' पवन हरियारीस१३, एती खट काया को आरंभ वरजत हैं। हो के भाजन' हू में भोजन कबहु न करे, पलंग१४ प्रमुख गृहि-आसन'" तजत हैं, सनान' सरीर-सोमा" और जो अकल्पनीय," तिनकों गहै न संत संजय सजत हैं। अर्थ- जो विवेक-विलुप्त व्यक्ति संपूर्ण अष्टादश स्थानों की तथा किसी भी एक स्थान की विराधना करता है, वह साघुता के सर्वोच्च पद से संभ्रष्ट हो जाता है। सच्चा साधु छह व्रतों तथा षट्काय के जीवों का पालन करे तथा अकल्पनीय पदार्थ, गृहस्थों के पात्रों में भोजन, पर्यख पर बैठना, गृहस्थों के घरों में एवं गृहस्थों के आसनों पर बैठना, स्नान करना और शरीर की विभूषा करना-ये सब सर्वथात्याग देता।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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