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________________ ८६ 0 धर्म के रशलक्षण संयम धाग्गा किये गीर्थकों को भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। कहा भी है :जिस बिना नहीं जिनराज सीझे, तू रल्यो जग कीच में । इक घरी मत विमगे करो नित, आयु जम मुख बीच में ।।' निरन्तर मौत की आशंका से घिरे मानव को कवि प्रेरणा दे रहे हैं कि संयम को एक घड़ी के लिये भी मत भूलो (संयम विण घड़ि एक्कु न जाइ), क्योंकि यह साग जगत मंयम के बिना ही इस संसार की कीचड़ में फँमा हुआ है। मंसार-मागर से पार उतारने वाला एकमात्र मंयम ही है । संयम एक बहुमूल्य रत्न है। इसे लूटने के लिए पंचेन्द्रिय के विषय-कपायरूपी चोर निरन्तर चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं। अतः कवि सचेत करते हुए कहते हैं :'संयम रतन संभाल, विषय चोर चहें फिरत हैं। आगे कहते हैं :उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाज अघ तेरे । मुग्ग नरक पशुगति में नाहीं, आलस हरन करन मुख ठाहीं ।। यहाँ अपने मन को समझाते हुए कहा गया है कि हे मन ! उत्तमसंयम को धारण कर; इससे तेरे भव-भव के वंधे पाप भाग जावेंगे, कट जावंगे। यह मंयम म्वर्गों ओर नरकों में तो है ही नहीं, अपितु पूर्ण संयम तो तिर्यञ्च गति में भी नहीं है। एकमात्र मनुष्य भव ही ऐसा है जिसमें मंयम धारण किया जा सकता है। मनुष्य जन्म की सार्थकता संयम धारण करने में ही है। कहते हैं देव भी इम संयम के लिए तरसते हैं। जिम संघम के लिए देवता भी तरसते हों और जिस विना तीर्थकर भी न तिरें, वह मंयम कैमा होगा? इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए। उसे मात्र दो-चार दिन भूखे रहने एवं सिर मुंडन करा लेने मात्र तक सीमित नहीं किया जा सकता। ' दशलक्षणधर्म पूजन, संयम सम्बन्धी छन्द . वही
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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