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________________ ८२ ० धर्म के बरालमरण है तो कुछ भी कह दोजिएगा। किन्तु सत्य बोलने के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है, अतः विना सोचे-समझे सत्य नहीं बोला जा मकना । मत्य बोलने के पहले सत्य जानना बहुत जरूरी है। यह बात प्रयोजनभूत तत्त्वों के संबंध में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। लौकिक वस्तुओं के बारे में बोला गया झूठ भी यद्यपि पापबंध का कारण है; मथापि प्रयोजनभूत तत्त्वों के विषय में बोला गया झूठ तो महान पाप है, अनंत संसार का कारण है, अपना और पर का बड़ा भारी अहित करने वाला है । अतः यदि वस्तुतत्त्व की मही जानकारी नहीं है तो अनापशनाप बोलने से नहीं बोलना - चुप रहना हितकर है। मक्ति के मार्ग में मत्य बोलना अनिवार्य नहीं; किन्तु सत्य जानना, सत्य मानना, और प्रात्म-सत्य के प्राश्रय से उत्पन्न वीतरागपरिणतिरूप सत्यधर्म प्राप्त करना जरूरी है। क्योंकि बिना वोले मोक्ष हो सकता है; पर बिना जाने, माने और तदरूप परिगामित हुए विना नहीं । सत्य जानने पर जीवन भर भी न बोले तो कोई अंतर न पड़ेगा, पर जाने बिना नहीं चलेगा। अग्नि को कोई गर्म न कहे तब भी वह गर्म रहेगी। उसे गर्म रहने के लिए यह आवश्यक नहीं कि उसे कोई गर्म कहे ही। इसी प्रकार उसे कोई गर्म न जाने तब भी वह गर्म रहेगी। उमीप्रकार वस्तु का सत्यस्वरूप भी वारणी की अपेक्षा नहीं रखता और न वह ज्ञान की ही अपेक्षा रखता है। वह तो मदा सत्य ही है। उसे उमी रूप में जानने वाला ज्ञान सत्य है, मानने वाली श्रद्धा सत्य है, कहने वाली वाणी सत्य है, और तद्नुकूल पाचरण करने वाला आचरण भी सत्य है । हम मलसत्य को ही भूल गए हैं ; तो उमके आश्रय से होने वाले ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र एवं वारगी के सत्य हमारे जीवन में कैसे प्रकट हों? __अन्तर में विद्यमान ज्ञानानन्दस्वभावी कालिक ध्रव यात्मतत्त्व ही परम सत्य है। उसके आश्रय से उत्पन्न हुअा ज्ञान, श्रद्धान, एवं वीतराग परिणति ही उत्तमसत्यधर्म है । आज का युग समझौतावादी युग है । अति उत्साह में कुछ लोग वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में भी समझौते की बात करते हैं। किन्तु वस्तु के सत्यस्वरूप को समझने की आवश्यकता है, समझौते की नहीं। वस्तु के स्वरूप में समझौते की गंजाइश भी कहाँ है और उसके
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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