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________________ उत्तमशोच ६७ यदि आप कहें कि क्रोध का प्रभाव तो क्षमा है, मान का प्रभाव मार्दव है, और माया का प्रभाव आर्जव है; अत्र लोभ ही बचा, अतः उसका प्रभाव शौच हो गया । तब मैं कहूँगा कि क्या क्रोध, मान, माया और लोभ ही कषाएँ हैं; हास्य, रति, अरति कषाएँ नहीं; भय, जुगुप्सा और शोक कपाएँ नहीं; स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद कषाएँ नहीं ? – ये भी तो कषाएँ हैं। क्या ये आत्मा को अपवित्र नहीं करतीं ? यदि करती हैं तो फिर पच्चीसों कपायों के प्रभाव को शौचधर्म कहा जाना चाहिए, न कि मात्र लोभ के प्रभाव को । अब आप कह सकते हैं कि भाई हमने थोड़े ही कहा है शास्त्रों में लिखा है, प्राचार्यों ने कहा है । - पर भाई साहब ! यही तो मैं कहता हूँ कि शास्त्रों में लोभ के प्रभाव को शौच कहा है और लोभ के पूर्णतः प्रभाव होने के पहिले सभी कषायों का अभाव हो जाता है, अतः स्वतः ही गिद्ध हो गया कि सभी प्रकार के कषायभावों से आत्मा अपवित्र होता है और सभी कषायों के प्रभाव होने पर शौचधर्म प्रकट होता है । लोभान्त माने लोभ है अन्त में जिनके - ऐसी सभी कपाएँ । चूंकि लोभ पच्चीसों कषायों के अन्त में समाप्त होता है, अतः लोभान्त में पच्चीसों कपाएँ आ जाती हैं । यह पूर्ण शौचधर्म की बात है । अंशरूप में जितना-जितना लोभान्तकपायों का प्रभाव होगा, उतना उतना शौचधर्म प्रकट होता जावेगा । यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब क्रोधादि सभी कषाएँ ग्रात्मा को पवित्र करती हैं तो क्रोध के जाने पर भी आत्मा में कुछ न कुछ पवित्रता प्रकट होगी ही, अतः क्रोध के प्रभाव को या मान के अभाव को शौचधर्म क्यों नहीं कहा; लोभ के प्रभाव को ही क्यों कहा ? इसका भी कारण है और वह यह कि क्रोध के पूर्णत: चले जाने पर भी आत्मा में पूर्ण पवित्रता प्रकट नहीं होती, क्योंकि लोभ तब भी रह सकता है । पर लोभ के पूतः चले जाने पर कोई भी कपाय नहीं रहती है । अतः पूर्गा पवित्रता को लक्ष में रखकर ही लोभ के प्रभाव को शौचधर्म कहा है । अंशरूप से जितना कपायभाव कम होता है, उतनी शुचिता प्रात्मा में प्रकट होती ही है ।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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