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________________ उत्तमशौच 0 ६५ धर्म और धर्मात्माओं के प्रति उत्पन्न हए गग को तो धर्म तक कह दिया जाता है, वह भी जिनवाणी में भी; पर वह सब व्यवहार का कथन होता है। उसमें ध्यान रखने की बात यह है कि राग लोभान्त-कषायों का ही भेद है, वह अकपायरूप नही हो सकता । जब प्रकपायभाव-वीतरागभाव का नाम धर्म है, तो रागभाव - कषायभाव धर्म कैसे हो सकता है ? अतः यह निश्चिनरूप से कहा जा सकता है कि लोभादिकषायरूपात्मक है स्वरूप जिसका, ऐमा राग चाहे वह मन्द हो चाहे तीव्र, चाहे शुभ हो चाहे अशुभ, चाहे अशुभ के प्रति हो चाहे शुभ के प्रति; वह धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि है तो आखिर वह राग (लोभ) रूप ही। यह बात सुनकर चौकिये नहीं, जरा गम्भीरता से विचार कीजिए । शास्त्रों में लोभ की सत्ता दश गुणस्थान तक कही है । तो क्या छठवें गणस्थान से लेकर दशवें गगास्थान तक विचरण करने वाले परमपूज्य भावलिंगी मुनिराजों को विपयों के प्रति लोभ होता होगा? नहीं, कदापि नहीं। उनके लोभ का आलम्बन धर्म और धर्मात्मा ही हो सकते हैं। आप कह सकते हैं कि जिनके तन पर धागा भी नही, जो सर्वपरिग्रह के त्यागी हैं- ऐसे कुन्दकुन्द आदि मुनिराजों के भी लोभ ? कैसी बातें करते हो ? पर भाई ! ये बातें मैं नहीं कर रहा, शास्त्रों में हैं, और मभी शास्त्राभ्यासी इन बातों को अच्छी तरह जानते हैं । अतः जब लोभ का वास्तविक अर्थ ममझना है तो उसे व्यापक अर्थ में ही समझना होगा । उसे मात्र रूपये-पैसे तक सीमित करने से काम नहीं चलेगा। आप यह भी कह सकते हैं कि अपनी बात तो करते नहीं, मुनिराजों की बात करने लगे । पर भाई ! यह क्यों भूल जाते हो कि यह शौचधर्म के प्रसंग में बात चल रही है और शौचधर्म का वर्णन शास्त्रों में मुनियों की अपेक्षा ही आया है। उत्तमक्षमादि दशधर्म तत्त्वार्थसूत्र में गप्ति-समितिरूप मुनिधर्म के साथ ही वगित हैं । वहत-सा लोभ जिसे प्राचार्यों ने पाप का बाप कहा है आज धर्म बन के बैठा है। धर्म के ठेकेदार उसे धर्म सिद्ध करने पर उतारू हैं। उसे मोक्ष तक का कारण मान रहे हैं और नही मानने वालों को कोस रहे हैं।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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