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________________ उत्तमभाव 0 ५५ ही अनंत कुटिलता है। रागादि आस्रवभाव दुःखरूप एवं दु:खों के कारण हैं, उन्हें सुखस्वरूप एवं सुख का कारण मानना; तद्रूप परिणमन कर सुख चाहना; संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है, फिर भी उसमें सुख मानना एवं तद्रूप परिणमन कर सुख चाहना ही वस्तुतः कुटिलता है, वक्रता है। इसीप्रकार वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा न मानकर, उसके विरुद्ध मानना एवं वैसा ही परिणमन करना चाहना विरूपता है। यह मब आत्मा की वक्रता है, कुटिलता है एवं विरूपता है। यह वक्रता-कुटिलना-विरूपता तो वस्तु का सही स्वरूप समझने से ही जावेगी। जैसा ग्रात्मा का स्वभाव है, उसे वैसा ही जानना. वैमा ही मानना और उमी में तन्मय होकर परिणाम जाना ही वीतरागी सरलता है; उत्तमप्रार्जव है। मुनिराजों के जो उत्तमप्रावधर्म होता है, वह इमीप्रकार का होता है अर्थात् वे आत्मा को वर्णादि और रागादि से भिन्न जानकर उममें ही ममा जाते हैं, वीनगगतारूप परिगाम जाते हैं, यही उनका उत्तमप्रार्जवधर्म है: बोलने और करने में प्रार्जवधर्म नहीं। आर्जवधर्म की जैसी उत्कृष्ट दशा उनके ध्यान-काल में होती है, वैमी उत्कृष्ट दशा बोलते समय या कार्य करते समय नहीं होती। वोलते और अन्य कार्य करते समय भी जो प्रावधर्म उनके विद्यमान है, वह बोलने-करने की क्रिया के कारण नही; उस ममय आत्मा में विद्यमान सरलता के कारण है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा मकना है कि श्रद्धा, जान और चारित्र का सम्यक् एवं एकम्प पग्गिामन ही प्रात्मा की एकरूपता है, वही वीतरागी सरलता है और वही वास्तविक उत्तमप्रार्जवधर्म है । लौकिक में छल-कपट के अभावरूप मन-वचन-काय की एकरूपतारूप सरल परिणति को व्यवहार से प्रार्जवधर्म कहा जाता है । अन्तर से बाहर की व्याप्ति होने से जिनके निश्चय उत्तम प्रार्जव प्रकट होता है, उनका व्यवहार भी नियम से सरल होता है अर्थात् उनके व्यवहार-मार्जव भी नियम से होता है । जिनके व्यवहार में भी भूमिकानुसार सरलता नहीं, उनके तो निश्चय पार्जव होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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