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________________ ५४ धर्म के बशलक्ष रण फूटता ही है । मन सदा ही अपावन बना रहे तो आाखिर हम उसे वाणी में आने से और जीवन में उतरने से कब तक रोकेंगे ? उसका पूरी तरह रोकना सम्भव भी तो नहीं है । जो जहाँ से आते हैं, वहाँ की बातें उनके मन में छाई रहती हैं; अतः वे सहज ही वहाँ की चर्चा करते हैं । यदि कोई आदमी अभीअभी अमेरिका से आया हो तो वह बात-बात में अमेरिका की चर्चा करेगा । भोजन करने बैठेगा तो बिना पूछे ही बतायेगा कि अमेरिका में इसतरह खाना खाते हैं, चलेगा तो कहेगा कि अमेरिका में इस प्रकार चलते हैं । कुछ बाजार से खरीदेगा तो कहेगा कि अमेरिका में तो यह चीज इस भाव मिलती है, आदि । 1 इमीप्रकार सदा प्रात्मा में विचरण करने वाले मुनिराज और ज्ञानीजन सदा ग्रात्मा की ही बात करते हैं और विषय - कषाय में विचरण करने वाले मोहीजन विषय कषाय की ही चर्चा करते हैं । अतः 'मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये' का प्राशय जो मन में आवे उसी को बक देना और जो मुँह से निकल गया वही कर डालना नहीं; वरन् यह है कि मनुष्य-जीवन में जो करने योग्य है हम उसी को वारगी में लावें और जो करने योग्य एवं कहने योग्य है, हमारे मन में बस वे ही विचार आवें, कुविचार नहीं । अन्य यह बात तो ठीक, पर मूल प्रश्न तो यह है कि मायाचार छोड़ने के लिए, मन-वचन-काय की विरूपता कुटिलना, वत्रता से बचने के लिए तथा आर्जवधर्म प्रकट करने के लिए अर्थात् मन की वान वारणी में लाने से फूलों की वर्षा हो और जीवन में उतारने से जगत् निहाल हो जावे, ऐसा पवित्र मन बनाने के लिए क्या करें ? उत्तम आर्जवधर्म प्रकट करने के लिए सर्वप्रथम यह जानना होगा कि वस्तुतः मायाकपाय मन-वचन-काय की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम नहीं; वरन् आत्मा की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम है । मन-वचन-काय के माध्यम से तो वह प्रकट होती है, उत्पन्न तो आत्मा में ही होती है । आत्मा का स्वभाव जैसा है वैसा न मानकर अन्यथा मानना, अन्यथा ही परिरणमन करना चाहना ही, अनंत वक्रता है। जो जिसका कर्त्ता-धर्ता हर्त्ता नहीं है, उसे उसका कर्ता-धर्ता हर्ता मानना चाहना
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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