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उत्तममाय ४१
चारों गतियों में चार कषायों की मुख्यता बताते हुए मनुष्य गति में मान की मुख्यता बताई है । आदमी सब कुछ छोड़ सकता है - घर - बार, स्त्री-पुत्रादि; यहाँ तक कि तन के वस्त्र भी, पर मान छोड़ना बहुत कठिन है । आप कहेंगे कैसी बात करते हो ? पद की मर्यादा तो रखनी ही पड़ती है । पर भाई ! समस्त पदों के त्याग का नाम साधु पद है, यह बात क्यों भूल जाते हो ?
रावरण मान के कारण ही नरक गया । यद्यपि वह सीताजी को हर कर ले गया था तथापि उसने उन्हें हाथ नहीं लगाया । अन्त में तो उसने सीताजी को ससम्मान राम को वापस करने का भी निश्चय कर लिया था, किन्तु उसने सोचा कि बिना राम से लड़े और बिना जीते देने पर मान भंग हो जाएगा। दुनियाँ कहेगी कि डर कर सीता वापस कर दी है । अतः उसने संकल्प किया कि पहिले राम को जीतूंगा, फिर सीता को ससम्मान वापस कर दूंगा ।
देखो ! सीता वापस देना स्वीकार, पर जीतकर ; हारकर नहीं । सवाल सीता का नहीं; मूंछ का था, मान का था । मूंछ के सवाल के कारण सैकड़ों घर बर्बाद होते सहज ही देखे जा सकते हैं । मनुष्यगति में अधिकतर झगड़े मान के खातिर ही होते है । न्यायालयों के आस-पास मूंछों पर ताव देते लोग सर्वत्र देखे जा सकते हैं ।
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यहाँ एक प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि आप कैसी बातें करते हैं ? मान-सम्मान की चाह तो ज्ञानी के भी हो सकती है, होती भी है । देखने पर पुराणों में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे |
हाँ! हाँ !! क्यों नहीं, अवश्य मिल जायेंगे । पर मान की चाह अलग बात है और मानादि कषायों में उपादेयबुद्धि अलग बात है । मानादि कषायों में उपादेयबुद्धि मिथ्यात्व भाव है, उसके रहते तो उत्तम मार्दवादि धर्म प्रकट ही नहीं हो सकते; मान की चाह और मान कषाय की उपस्थिति में प्रांशिकरूप से मार्दवादि धर्म प्रकट हो सकते हैं, क्योंकि मान की चाह और मानकषाय की प्रांशिक उपस्थिति चारित्र मोह का दोष है, वह क्रमशः ही जायगा, एक साथ नहीं ।
सम्यग्दृष्टि के यद्यपि अनन्तानुबंधी मान चला गया है तथापि अप्रत्याख्यानावररण व प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन मान तो विद्यमान है, उनका प्रकट रूप तो शानी के भी दिखाई देगा ही । इसी प्रकार प्रणुव्रती के प्रत्याख्यान श्रौर संज्वलन सम्बन्धी तथा महाव्रती