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________________ ४०० धर्म के बरालकरण है - मान नहीं, पर आदमी में स्वाभिमान तो होना ही चाहिये । स्वाभिमान किसे कहते हैं, इसकी तो उसे कुछ खबर ही नहीं है: मान के ही किसी अंश को स्वाभिमान मान लेता है। मान लीजिये आपने मुझे प्रवचन के लिए बुलाया, पर जो स्टेज बनाया तथा प्रवचन सुनने के लिए जितनी जनता जूड़ी, वह स्टेज व उतनी जनता मुझे अपनी विद्वत्ता की तुलना में अपर्याप्त लगे तथा मैं कहने लगं कि इतनी-सी स्टेज, इस पर एक चौकी और लगाओ। इतने बड़े विद्वान् के लिए इतनी नीची स्टेज बनाते शर्म नहीं आई और जनता भी इतनी-सी। आप कहेंगे पंडितजी मानी हैं और मैं कहूँगा कि यह मान नहीं, स्वाभिमान है । विद्वान को मानी नहीं पर स्वाभिमानी तो होना ही चाहिये, उसकी इज्जत तो होनी ही चाहिए । समझ में नही आता कि इममें बेइज्जती की किसने? क्या कम जनता एवं नीचे स्टेज से किसी की बेइज्जती हो जाती है ? अन्ततोगत्वा मान और स्वाभिमान के बीच विभाजन रेखा तो खींचनी ही होगी-कि कहाँ तक वह स्वाभिमान कहलाएगा और कहाँ से मान । आखिर में होता यही है कि लोग उसे मानी कहते रहते हैं और मान करने वाला उसी को स्वाभिमान नाम देता रहता है। और भी अनेक प्रसंगों पर इस प्रकार के दृश्य देखे जा सकते हैं। स्वाभिमान शब्द स्व+अभिमान से बना है । स्व शब्द निज का वाची है, उसमें स्टेज और जनता कहाँ से पा जाते हैं। वस्तुतः तो अपनी आत्मा की पूर्ण शक्तियों को पहिचान कर उनके आश्रय से जगत के मामने दीन न होना भी स्वाभिमान है। स्वाभिमान का सही स्वरूप न पहिचान कर स्वाभिमान के नाम पर अज्ञानी मान ही करता रहता है। सम्मान के नाम से ही मान लिया-दिया जाता है। कहते हैं कि यह सत् मान है। हम तो समझते हैं कि मान तो असत् ही होता है, पर लोगों ने उसके भी दो भेद कर डाले हैं- सत् +मान-सम्मान और असत्+मान-असम्मान । यदि मान भी सत् होगा तो फिर असत् का क्या होगा? ___लोग कहते हैं कि सम्मान तो दूसरों ने दिया है, उससे हम मानी कैसे हो गये ? पर भाई साहब ! लिया तो आपने है । प्राचार्यों ने
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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