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________________ उत्तममा 0 ३१ दिखाकर दुख उत्पन्न करके अपना सम्मान कराता है। तथा मान होने पर कोई पूज्य-बड़े हों उनका भी सम्मान नहीं करता, कुछ विचार नहीं रहता। यदि अन्य नीचा और स्वयं ऊंचा दिखाई न दे, तो अपने अन्तरंग में आप बहुत सन्तापवान होता है और अपने अंगों का घात करता है तथा विष प्रादि से मर जाता है । - ऐसी अवस्था मान होने पर होती है।" कषायों में मान का दूसरा नम्बर है, क्रोध का पहिला। दश धर्मों में भी उत्तमक्षमा के बाद ही उत्तममार्दव आता है। इसका भी कारण है । यद्यपि क्रोध और मान दोनों द्वेषरूप होते हैं तथापि इनकी प्रकृति में भेद है। जब कोई हमें गाली देता है तो क्रोध आता है, पर जब प्रशंसा करता है तो मान हो जाता है। दुनियाँ में तो निंदा और प्रशंसा सुनने को मिलती ही रहती है। अज्ञानी दोनों स्थितियों में कषाय करता है। जिसप्रकार जिनका शारीरिक स्वास्थ्य कमजोर होता है, उन्हें ठंडी और गरम दोनों प्रकार की हवाएँ परेशान करती हैं, गरम हवा में उन्हें ल लग जाती है और ठंडी हवा से जुखाम हो जाता है; उसीप्रकार जिनका आत्मिक स्वास्थ्य कमजोर होता है, उन्हें निंदा और प्रशंसा दोनों ही परेशान करते हैं । निंदा की गरम हवा लगने से उन्हें क्रोध की लू लग जाती है और प्रशंसा की ठंडी हवा लगने से मान का जुखाम हो जाता है। निंदा शत्रु करते हैं और प्रशंसा मित्र । अतः क्रोध के निमित्त बनते हैं शत्रु और मान के निमित्त बनते हैं मित्र ।। विरोधियों की एक आदत होती है -विद्यमान गुणों की चर्चा तक न करना और अविद्यमान अवगुणों की बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करना। अनुकूलों की भी एक आदत होती है, वे भी एक कमजोरी के शिकार होते हैं - वे विद्यमान अवगुणों की चर्चा तक नहीं करते, बल्कि अल्प गुणों को बड़ा-चढ़ाकर बखान करते हैं, कभी-कभी अविद्यमान गुरणों को भी कहने लगते हैं। कम्पाउंडर को डॉक्टर और मुंशी को धकील साहब कहना इसी वृत्ति का परिणाम है। दोनों ही वृत्तियाँ खोटी हैं, क्योंकि वे क्रमशः क्रोध और मान के अनुकूल हैं। ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ५३
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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