SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७०० प सलकारण इसप्रकार लोग कभी न किये गये अपराध के लिए क्षमा मांगेंगे और क्षमा करने वाला अस्वीकृत अपराध को क्षमा करने के लिए तैयार न होगा। यदि कदाचित् भाषा के महापण्डित मिल-जुलकर कोई ऐसा डाफ्ट बना लावें कि जिससे 'सांप भी मर जावे और लाठी भी न ?' तो फिर इस बात पर झगड़ा हो सकता है कि क्षमा मादान-प्रदान का स्थान कोनसा हो? इन सब बातों को निपटाकर यदि क्षमायाचना या क्षमाप्रदान कार्यक्रम समारोह सानन्द सम्पन्न भी हो जावे, तो भी क्या भरोसा कि यह क्षमाभाव कब तक कायम रहेगा? कायम रहने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? जब हृदय में क्षमाभाव पाया ही नहीं, सब-कुछ कागज में या वाणी में ही रह गया है। इसप्रकार की क्षमावाणी क्या निहाल करेगी? यह भी एक विचार करने की बात है। ___'क्षम्म करना, क्षमा करना' रटते लोग तो पग-पग पर मिल जावेंगे; किन्तु हृदय से वास्तविक क्षमायाचना करने वाले एवं क्षमा करने वालों के दर्शन आज दुर्लभ हो गये हैं। क्षमावाणी का सही रूप तो यह होना चाहिए कि हम अपनी गलतियों का उल्लेख करते हुए विनय:कामने-सामने या पत्र द्वारा शुद्ध हृदय से क्षमायाचना करें एवं पवित्रभाव से दूसरों को क्षमा करें अर्थात् क्षमाभाव धारण करें। प्राप सोच सकते हैं कि इस पावन अवसर पर मैं भी क्या बात ले बैठा? पर मैं जानना चाहता हूँ कि क्या कभी आपने क्षमावाणी के बाद-जबकि प्रापने अनेकों को क्षण किया है, अनेकों से क्षमा मांगी है, मात्मनिरीक्षण किया है ? यदि नहीं, तो अब करके देखिये कि क्या मापके जीवन में भी कोई अन्तर पाया है या जैसा का तैसा ही चल रहा है? यदि जैसा का तैसा ही चल रहा है तो फिर मेरी बात की सत्यता पर एक बार गंभीरता से विचार कीजिए, उसे ऐसे ही बातों में न उड़ा दीजिए। क्या मैं माशा करू कि पाप इस मोर ध्यान देंगे? देंगे तो कुछ लाभ उठायेंगे, अन्यथा जैसा चल रहा है वैसा तो चलता ही रहेगा, उसमें तो कुछ पाना-जाना है नहीं। क्षमावाणी का वास्तविक भाव तो यह था कि पर्वराज पर्दूषण में दशौकी प्राराधना से हमारा हृदय क्षमाभाव से प्राकण्ठ-पापूरित हो उठना चाहिए। और जिसप्रकार घड़ा जब माकण्ठ-मापूरित हो
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy