SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षमावाणी १६६ धन्य है इसकी वीरता को । कहता है 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' । अनेकों क्षमावाणियाँ बीत गई, पर इसकी वीरता नहीं बीती । अभी भी ताल ठोककर तैयार है - लड़ने के लिए, मरने के लिए। और तो और क्षमा माँगने के मुद्दे पर भी लड़ सकता है, क्षमा माँगते -मांगते लड़ सकता है, क्षमा नहीं माँगने पर भी लड़ सकता है, बलात् क्षमा माँगने को वाध्य भी कर सकता है । इसमें न मालूम कैसा विचित्र सामर्थ्य पैदा हो गया है कि माफी मांगकर भी अकड़ा रह सकता है, माफ करके भी माफ नहीं कर सकता है । कभी-कभी तो माफी भी अकड़कर मांगता है और माफी माँग लेने का रोब भी दिखाता है । मेरे एक सहपाठी की विचित्र प्रदत थी । वह बड़ी प्रकड़ के साथ, बड़े गौरव से माफी मांगा करता था और तत्काल फिर उसी मुद्दे पर अकड़ने लगता था । वह कहता - गलती की तो क्या हो गया ? माफी भी तो मांग ली है, अब अकड़ता क्यों है ? इस तरह बात करता कि जैसे उसने माफी माँगकर बहुत बड़ा अहसान किया है । उस अहसान का आपको अहसानमन्द होना चाहिए । जिनसे झगड़ा हुआ हो, एक तो हम लोग उन लोगों से क्षमायाचना करते ही नहीं । कदाचित् हमारे इष्टमित्र सद्भाव बनाने के लिए उनसे क्षमा मांगने की प्रेरणा देते हैं, ध्य करते हैं, तो हम अनेक शर्तें रख देते हैं । कहते हैं - "उससे भी तो पूछो कि वह भी क्षमा मांगने या क्षमा करने को तैयार है या नहीं ?" यदि वह भी तैयार हो जाता है तो फिर इस बात पर बात अटक जाती है कि पहिले क्षमा कौन मांगे ? इसका भी कोई रास्ता निकाल लिया जावे तो फिर क्षमा माँगने और करने की विधि पर झगड़ा होने लगता है - क्षमा लिखित मांगी जावे या मौखिक । यदि यह मसला भी किसी प्रकार हल कर लिया जावे तो फिर क्षमा मांगने की भाषा तय करना कोई आसान काम नहीं है । मांगने वाला इम भाषा में क्षमा मांगेगा कि "मैंने कोई गलती तो की नहीं है, फिर भी आप लोग नहीं मानते हैं तो मैं क्षमा माँगने को तैयार हूँ लेकिन "1" - कहकर कोई नई शर्त जोड़ देता है । ......... इस पर क्षमादान करने वाला अकड़ जाएगा, कहेगा - "पहिले अपराध स्वीकार करो, बाद में माफ करूंगा।"
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy