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________________ १६२ 0 धर्म के बरालक्षण होता है, उसके साथ स्वस्त्री के सेवनादि के त्यागरूप बुद्धिपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही वास्तव में व्यवहारब्रह्मचर्य है। इसप्रकार जीवन में निश्चय और व्यवहार ब्रह्मचर्य का सुमेल आवश्यक है। पूजनकार ने दोनों की ही संतुलित चर्चा की है :शीलबाड़ नौ राख, ब्रह्मभाव अंतर लखो । करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ।। हमें अपने शील की रक्षा नववाड़पूर्वक करना चाहिये तथा अन्तर में अपने प्रात्मा को देखना-अनुभवना चाहिये । दोनों ही प्रकार के ब्रह्मचर्य का अभिलाषी होकर मनुष्यभव का वास्तविक लाभ लेना चाहिये। जिसप्रकार खेन की रक्षा बाड़ लगाकर करते हैं, उमीप्रकार हमें अपने शील की रक्षा नौ बाड़ों से करना चाहिये । जितना अधिक मूल्यवान माल (वस्तु) होता है, उसकी रक्षा-व्यवस्था उतनी ही अधिक मजबूत करनी पड़ती है। अधिक मूल्यवान माल की रक्षा के लिये मजबूती के साथ-साथ एक के स्थान पर अनेक बाड़ें लगाई जाती हैं। हम रत्नों को कहीं जंगल में नहीं रखते। नगर के बीच मेंमजबत मकान के भी भीतर बीचवाले कमरे में लोहे की तिजोरी में तीन-तीन ताले लगाकर रखते हैं। शील भी एक रत्न है, उसकी भी रक्षा हमें नौ-नौ बाड़ों से करनी चाहिए। हम काया से कुशील का सेवन नहीं करें, कुशीलपोषक वचन भी न बोलें, मन में भी कुशीलसेवन के विचार न उठने दें। ऐसा न हम स्वयं करें, न दूसरों से करावें, और न इसप्रकार के कार्यों की अनुमोदना ही करें। इसप्रकार यद्यपि शास्त्रों में भी निश्चयब्रह्मचर्य का सहचारी जानकर स्त्रीसेवनादि के त्यागरूप व्यवहारब्रह्मचर्य की पर्याप्त चर्चा की गई है; तथापि प्रात्मरमरणतारूप निश्चयब्रह्मचर्य के बिना मुक्ति के मार्ग में उसका विशेष महत्त्व नहीं है । निश्चयब्रह्मचर्य के बिना वह अनाथ-सा ही है। यद्यपि यहाँ उत्तमब्रह्मचर्य का वर्णन मुनिधर्म की अपेक्षा किया गया है, अतः उत्कृष्टतम वर्णन है; तथापि गहस्थों को भी ब्रह्मचर्य
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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