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________________ उत्तम प्राचिन्य 0 १७ वर्णन करने वाले चरणानुयोग के ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। तदनुसार मुनिराज के जव रंचमात्र भी बाह्य परिग्रह नहीं होता तब प्रणवती गृहस्थ अपने बाह्य परिग्रह को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार सीमित कर लेता है,। यद्यपि प्रवती गृहस्थ भी अन्याय से धनोपार्जन नहीं करता; तथापि उसके परिग्रह की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है, उनमें चक्रवर्ती भी होते हैं। ___ इसप्रकार जैनियों में अनेक भेद पड़ते हैं। यदि जैनमुनि एक मृत के बराबर भी परिग्रह रखे तो वह मनि नहीं और यदि अवती श्रावक छहखण्ड की विभूति का भी मालिक हो तो उसके कारण उमके जैनत्व में कोई कमी नहीं पाती, क्योंकि वह क्षायिक सम्यग्दष्टि भी हो सकता है। यद्यपि बाह्यविभूति और उसे रखने का भाव जैनत्व में बाधक नहीं, तथापि रंचमात्र भी परिग्रह रखने वाले को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अतः मुक्ति के अभिलाषी को तो समस्त परिग्रह का त्याग करना ही चाहिए। अपरिग्रह की तुलना समाजवाद से भी की जाती है । कुछ लोग तो दोनों को एक ही कहने लगे हैं। पर दोनों में मुलभूत अंतर यह है कि जहाँ समाजवाद का सम्बन्ध मात्र वाह्य वस्तुनों में है, उनके ममान वितरण में है; वहाँ अपरिग्रह में कषायों का त्याग मुख्य है। यदि वाह्य परिग्रह से भी ममाजवाद की तुलना करें तो भी दोनों के दृष्टिकोण में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है । समाजवाद के प्टिकोण के अनुसार यदि भोगसामग्री की कमी नहीं है और वह सबको इच्छानमार प्राप्त है तो फिर उसके त्याग का या मीमित उपयोग का कोई प्रयोजन नहीं है, पर अपरिग्रह के दृष्टिकोण से यह बात नहीं है; भले ही सभी को प्रमीमित भोग प्राप्त हों, फिर भी हमें अपनी इच्छाओं को सीमित करना ही चाहिए। ____ अनाज की कमी से मप्ताह में एक दिन भोजन नहीं करना अलग बात है और किसी भी प्रकार की कमी न होने पर भी भोजन का त्याग दूसरी बात है। समाजवादी दृष्टिकोण पूर्णतः आर्थिक है, जबकि अपरिग्रह की दृष्टि पूर्णतः आध्यात्मिक है। यदि सबके पास कार हो और तुम भी रखो तो समाजवाद को कोई ऐतराज नहीं होगा; पर अपरिग्रह
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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