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________________ उत्तम प्राकिंवन्य 0 १४५ जब साक्षात् देखते हैं कि उनकी मर्जी के बिना बस एक कदम भी नहीं चल सकती तब कैसे समझ में प्रावे कि इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । लौट-फिर कर बात वहीं आ जाती है कि अन्तरंग परिग्रह त्यागे बिना यदि बाह्य परिग्रह छोड़ा जाएगा तो यही सब कुछ होगा,क्योंकि अन्तरंग परिग्रह के त्याग के बिना बहिरंग परिग्रह का भी वास्तविक त्याग नहीं हो सकता। फिर भी शास्त्रों में नववें वेयक तक जाने वाले जिन द्रव्यलिंगी-मिथ्यादष्टि मुनिराजों की चर्चा है, उनके तो तिल-तुषमात्र बाह्य परिग्रह और उससे लगाव देखने में नहीं पाता । अन्तर्दष्टि बिना उनके द्रव्यलिंगत्व का पता लगाना असंभव-सा ही है। मिथ्यात्वादि अन्तरंग परिग्रह के त्याग पर बल देने का प्राशय यह नहीं है कि बहिरंग परिग्रह के त्याग की कोई आवश्यकता नहीं है या उसका कोई महत्त्व नहीं है । अन्तरंग परिग्रह के त्याग के साथ-साथ बहिरंग परिग्रह का त्याग भी नियम से होता है, उसकी भी अपनी उपयोगिता है, महत्त्व भी है; पर यह जगत बाह्य में ही इतना उलझा रहता है कि उसे अन्तरंग की कोई खबर ही नहीं रहती। इस कारण यहाँ अन्तरंग परिग्रह की ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया गया है। जिसके भूमिकानुसार वाह्य परिग्रह का त्याग नहीं है, उसके अन्तरंग परिग्रह के त्याग की बात भी कोरी कल्पना है । यदि कोई कहे कि हमने तो अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, अब बहिरंग बना रहे तो क्या ? तो उसका यह कहना एक प्रकार से छल है, क्योंकि अन्तरंग में राग के त्याग होने पर तदनुसार वाह्य परिग्रह के संयोग का त्याग भी अनिवार्य है। यह नहीं हो सकता कि अन्तरंग में मिथ्यात्व; अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ का प्रभाव हो जावे और बाहर में नग्न दिगम्बर दशा न हो। उक्त अन्तरंग परिग्रहों के अभाव में बाह्य में सर्व परिग्रह के त्यागरूप नग्न दिगम्बर दशा होगी ही। आकिंचन्यधर्म का धारी अकिंचन्य बनने के लिए सबसे प्रथम आकिंचन्यधर्म का वास्तविक स्वरूप जानना होगा, मानना होगा, समस्त परपदार्थों से भिन्न निजात्मा का अनुभव करना होगा। तत्पश्चात अन्तरंग परिग्रहरूप कषायों के प्रभावपूर्वक तदनुसार बाह्य परिग्रह का भी बुद्धिपूर्वक, विकल्पपूर्वक त्याग करना होगा।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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