SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशलक्षण महापर्व 0 १३ अतः आज भो इन धर्मों की आराधना को पूरी-पूरी आवश्यकता है नया सुदूरवर्ती भविष्य में भी क्रोधादि विकारों से युक्त दुखी आत्माएँ रहने वाली हैं, अतः भविष्य में भी इनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। तीनलोक में सर्वत्र हो क्रोधादि दुःख के और क्षमादि सुख के कारण हैं। यही कारण है कि यह महापर्व शाश्वत अर्थात कालिक और सार्वभौमिक है, सब का है। भले ही सब इमकी आराधना न करें, पर यह अपनी प्रकृति के कारगण मब का है. सब का था, और मब का रहेगा। यद्यपि अष्टाह्निका महापर्व के ममान यह भी वर्ष में तीन बार प्राता है - (१) भादों सुदी ५ मे १४ तक, (२) माघ मृदी ५ से १४ तक, व (३) चैत्र मुदी ५ से १४ तक : तथागि मारे देश में विशालरूप में बड़े उत्साह के माथ मात्र भादों सुदी ५ से १४ तक ही मनाया जाता है। बाकी दो को नो बहुत से जैन लोग भी जानते तक नहीं हैं। प्राचीन काल में बरमान के दिनों में आवागमन की मूविधानों के पर्याप्त न होने से व्यापागदि कार्य महज ही कम हो जाते थे। तथा जीवों की उत्पत्ति भी बरसात में बहत होती है। अहिंसक समाज होने से जैनियो के साधुगगा नो चार माह तक गाँव से गांव भ्रमगा बंद कर एक स्थान पर ही रहते हैं, थावक भी वहत कम भ्रमगा करते थे। अतः महज ही सत्समागम एवं समय की महज उपलब्धि ही विशेष कारण प्रतीत होते है - भादों में ही इसके विशाल पैमाने पर मनाये जाने के। वैसे तो प्रत्येक धार्मिकपर्व का प्रयोजन प्रात्मा में वीनगग भाव की वद्धि करने का ही होता है. किन्तु इम पर्व का संबध विशेष रूप में प्रात्म-गुगों की आराधना में है। अतः यह वीतरागी पर्व मंयम और माधना का पर्व है। पर्व अर्थात मंगल काल, पवित्र अवमर । वास्तव में तो अपने आत्म-स्वभाव की प्रतीनिपूर्वक वीनगगी दशा का प्रगट होना ही यथार्थ पर्व है. क्योंकि वही प्रात्मा का मगलकारी है और पवित्र अवमर है। __ धर्म तो आत्मा में प्रकट होता है, तिथि में नही; किन्तु जिस तिथि में प्रात्मा में क्षमादिरूप वीतरागी शान्ति प्रकट हो, वही तिथि पर्व कही जाने लगती है । धर्म का अाधार तिथि नही, प्रात्मा है ।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy