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________________ ११८ 0 धर्म के बशलक्षण दूसरे का उपकार हो, इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है। दान में परोपकार का भाव मुख्य रहता है और अपने उपकार का गौण; किन्तु त्याग में स्वोपकार ही सब-कुछ है, दूसरों के उपकार के लिए मोह-राग-द्वेष नहीं त्यागे जाते हैं । यह बात अलग है कि अपने त्याग से प्रेरणा पाकर या अन्य किसी प्रकार से पर का भी उपकार हो जावे। ___ यदि कोई दान देता है तो उसका कर्तव्य है कि जिस काम के लिये दान दिया है, उसकी देख-रेख भी करे। कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि आपने धर्मशाला तो यात्रियों के ठहरने के लिए बनाई है और उसे किराये से उठा दिया गया हो; आपने पैसा तो दिया प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार के लिए और उससे अधिकारियों ने अपने आराम के लिए एयरकन्डीशन लगा लिया हो; अापने पैसा तो दिया वीतरागता के प्रचार-प्रसार के लिए और उससे गग को धर्म बताकर प्रचार किया जा रहा हो; आपने पैसा तो दिया धामिकनैतिक शिक्षा के लिए और उममे शिक्षा दी जा रही हो कानन की। कुछ लोग कहते हैं कि आपने तो दान दे दिया। अब आपको क्या मतलब कि उसका क्या हो रहा है, वह कहाँ खर्च हो रहा है, उसे कौन खा रहा है ? जब आपने उसे त्याग ही दिया है तो उससे फिर क्या प्रयोजन ? ऐसी बातें वही लोग करते हैं जो या तो दान की परिभाषा नहीं जानते या फिर कुछ गड़बड़ी करना चाहते है, करते हैं; क्योंकि वे चाहते हैं कि वे चाहे जो करें, उन्हें कोई टोका-टोकी न करे। जिसे मही काम करना है, जो पैसा जिस उद्देश्य से प्राप्त हना है- उसी में लगाना है; उन्हें इसमें क्या ऐतराज हो सकता है कि दातार उनसे यह क्यों पूछता है कि जिम उद्देश्य से जिस कार्य के लिए उसने दान दिया था - वह हो रहा है या नहीं, उस उद्देश्य की पूत्ति हो रही है या नहीं? वे यह भूल जाते हैं कि उसने पैसे का त्याग नहीं किया है, वरन् किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दान दिया है। दान उपकार के विकल्पपूर्वक दिया जाता है, अतः ज्ञानी-दानी को भी व्यवस्था देखने-जानने का सहज विकल्प पाता है। ज्ञान-दान में भी जव किसी
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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