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________________ उत्तमस्याग ११७ है और उसे नग्न कर ( उघाड़कर) कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आा गया है, यह मेरा है सो मुझे दे दे'; तव बार-बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह, सर्व चिन्हों से भली-भांति परीक्षा करके, 'अवश्य यह वस्त्र दूसरे का ही है' ऐसा जानकर, ज्ञानी होता हुआ, उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है । इसीप्रकार ज्ञाना भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहरण करके उन्हें अपना जानकर अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है। जब श्रीगुरु परभाव का विवेक करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा प्रात्मा वास्तव में एकज्ञानमात्र ही है'; तब बारम्बार कहे गये इस आगमवाक्य को सुनता हुआ वह, समस्त चिन्हों मे भली-भांति परीक्षा करके 'अवश्य यह परभाव ही हैं' यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावों को तत्काल छोड़ देना है ।"" उक्त कथन से यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि त्याग पर को पर जानकर किया जाता है। दान में यह बात नहीं है । दान उसी वस्तु का दिया जाता है जो स्वयं की हो; परवस्तु का त्याग तो हो सकता है, दान नहीं । दूसरे की वस्तु उठाकर किमी को दे देना दान नहीं, चोरी है । इसीप्रकार त्याग वस्तु को अनुपयोगी, अहितकारी जानकर किया जाता है; जबकि दान उपयोगी और हितकारी वस्तु का दिया जाता है । उपकार के भाव से अपनी उपयोगी वस्तु पात्रजीव को दे देना दान है । दान की परिभाषा प्राचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में इसप्रकार दी है : 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ||३८||' उपकार के हेतु से धन प्रादि अपनी वस्तु को देना सो दान है । प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है : 'परानुग्रहबुद्धया स्थान दानम् ३ यह प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद है । २ प्रध्याय ६, सूत्र १२ की टीका
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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