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________________ सिद्ध वि० २५४ त्यू ही त्रिकाल अनंत द्रव्य, पर्याय प्रकट निहारते ॥ यातै उचित ही है ज तमपद, दीपसों पूजा कर। इक० ॥ ॐ ह्री श्रासिद्धपरमेष्ठिने ०२४ गुणसयुक्ताय मेहाधकारविनाशनाय दीप नि० ॥६॥ वर ध्यान अगनि जराय वसुविधि, ऊर्ध्वगमन स्वभावते । राजै अचल शिव थान नित, तिन धर्मद्रव्य अभावतें॥ यातै उचित ही है जु तुमपद, धूपसों पूजा करू। इक० ॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय अष्टकर्मदहनाय धूप नि० ॥७॥ सर्वोत्कृष्ट सु पुण्य फल, तीर्थेश पद पायो महा। तीर्थेश पदको स्वरुचिधर, अव्यय अमर शिवफल लहा यातै उचित ही है जु तुमपद, फलनसों पूजा कर। इक सहस अरु चौबीस गुरण गण भावयुत मनमें धरू॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय मोक्षफल प्राप्तये फल नि०।८।। अष्टांग मूल सु विधि हरो, निज अष्ट गुण पायो सही। अष्टार्द्ध गति संसार मेटि सु अचल हदै अष्टम मही॥ अष्टम पूजा २५४
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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