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________________ सिद्ध •२५३ minummmmmmmmmuamror याते उचित ही है जु तुमपद, मलयसो पूजा करू । इक० ॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय समारतापविनाणनाय बन्दन नि०२॥ अक्षय अबाधित आदि अन्त, समान स्वच्छ सुभाव हो। ज्यों तुस विना तंदुल दिपै त्यू , निखिल अमल अभाव हो । याते उचित ही है जु तुमपद, अक्षतं पूजा करू इक० ॥ ॐ ह्री श्री सिद्धारमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत नि० ॥३॥ गुण पुष्पमाल विशाल तुम, भवि कंठ पहिरै भावसों ! जिनके मधुप मनरसिक लुब्धित, रमत नित प्रति चावसो॥ यातै उचित ही है ज तमपद, पुष्पसों पूजा करूं। इक०॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणमयुक्ताय श्रीकामवागविनाशनाय पुष्प नि०1४18 शुद्धात्म सरस सुपाक मधुर, समान और न रस कही। ताके हो आस्वादी सु तुम सम, और सतुष्टित नहीं ॥ यात उचित ही है ज तुमपद, चरुनसों पूजा कर। इक०॥ सतमा ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुण सयुक्ताय क्षुधागेगांवनाशनाय नवेद्य नि० ॥५॥ पूज स्वपर प्रकाश स्वभावधर ज्य, निज स्वरूप संभारते। २५ vammarramme
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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