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________________ सिद्ध वि. यात उचित ही है जु तुपपद, अर्घसो पुजा कर। इक०॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुण सयुक्ताय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्य नि० ॥ निर्मल सलिल शुभ वास चंदन, धवल अक्षत युत अनी। २५५ ॥ शुभपुष्प मधुकर नित रभे, चरुप्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भलै । करि अर्घ सिद्ध समह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥ ते क्रमावर्त नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टार अपार गुरण, सूक्षम सरग अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिवकमलापती। मुनि ध्येय सेय अभेय चहुगुरण-गेह धो हम शुभ मती॥पूर्णार्घ्य ॥ अथ १०२४ नाम गुराण माहित अर्घ ॥दोहा॥ पष्टम इन्द्रिय विषय कषाय है, अन्तर शत्रु महान । ३ पूजा तिनको जीतत जिनभये, नम सिद्ध भगवान ॥ॐ ह्री अहं जिनाय नम अध्यं ।। २५५
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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